श्री लालाचार्य जी महाराज महान संत हो गए । ये परम वैष्णव संत श्री रामानुजाचार्य जी के जामाता थे।वैष्णव वेश के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा थी।वे वैष्णव वेशधारी प्रत्येक संत को अपना भाई मानते थे और उसका उसी प्रकार आदर सत्कार करते थे।श्री लालाचार्यजी के इस भावको उनकी धर्मपत्नी तो जानती थी,परन्तु साधारण लोग भला इसे क्या समझे ।एक दिन श्री लालाचार्यजी की पत्नी जल भरने के लिए नदीतट पर गयी हुई थी,उनके साथ उनकी कुछ सहेलियां भी थी ,जो श्री लालाचार्याजी की वैष्णवनिष्ठा के कारण उनका मजाक उडाया करती थी।उसी समय किसी वैष्णव संत का शारीर बहता हुआ उधर नदी किनारे आया ,उसके शारीर पर वैष्णवचिन्ह अंकित थे और वह तुलसी कंठी माला धारण किये हुए थे।
सहेलियों ने व्यंग करते हुए पूछा- इन्हें देखकर ठीक से पहचान लो , तुम्हारे जेठ है या देवर । पत्नी ने घर आकर श्री लालाचार्य जी से यह बात कही ,ये बात सुनकर वे रोने लगे.अंतमे ये सोच कर अपने मन को शांत किया ये मेरे भाई भगवद्भक्त थे -वैष्णव संत थे इन्हें भगवद्धामकी प्राप्ति हुई है।तत्पश्चात उनका शव प्राप्तकर अंतिम क्रिया करने के उद्देश्यसे वे नदिकिनारे आये और विधि-विधानपूर्वक उनकी क्रिया की।
तेरहवी के दिन श्री लालाचार्याजी ने उन वैष्णवसंतके निमित्त ब्राह्मण भोजनका आयोजन किया और उसके हेतु स्थानीय ब्राह्मणोंको आमंत्रित किया ,परन्तु उन ब्राह्मणोंने सोचा न जाने किसका शव उठा लाये, उसकी जाती गोत्र का कुछ पता नही और उसके तेरहवी में हमें खिलाकर भ्रष्टकर देना चाहते है।अतः इसके घर कोई ब्राह्मण नहीं जाना चाहिए तथा जो ब्राह्मण परिचय का आये उसे भी ये सब बताकर रोक देना चाहिए।
जब श्री लालाचार्यजी को यह पता चला तो वह बहुत चिंतित हुए और उन्होंने ये सब बातें श्री रामानुजाचार्य से कही।श्रीरामानुजाचार्य जी ने कहा की इस विषय में तुम्हे चिंता नहीं करनी चाहिए,वे ब्राह्मण अज्ञानी है और उन्हें वैष्णव-प्रसाद के महात्म्य का ज्ञान नहीं है ।यह कहकर उन्होंने दिव्य वैष्णव पार्षदोंका आवाहन किया और वैष्णव-प्रसाद की महिमा जानने वाले वे दिव्य पार्षद ब्राह्मण वेशमें उपस्थित होकर श्री लालाचार्याजी के घर की ओर जाने लगे। उन्हें देखकर वहाके स्थानीय ब्राह्मणोंने उन्हें रोकना चाहा ,परन्तु उनके दिव्या तेज से अभिभूत होकर खड़े-के -खड़े रह गए और आपसमें विचार किया के जब ये लोग भोजन करके बहार आएंगे तब हमलोग इनकी हसी उड़ायेंगे की कहो,किसके श्रद्धाके ब्राह्मण भोजनमें आप गए थे?क्या उसके कुल-गोत्र का भी आप सबको ज्ञान है?
इधर ब्राह्मण लोग ऐसा सोच ही रहे थे ,उधर ब्राह्मण वेशधारी पार्षद श्री लालाचार्याजी के आंगन से भोजन कर आकाशमार्ग से श्री वैकुंठधामके लिए प्रस्थान कर गए। ब्राह्मणों ने जब उन्हें आकाशमार्ग से जाते देखा तो उनकी आँखें खुली रह गयी. उन्हें अपनी भूल का पछतावा हुआ।वे लोग आकर श्री लालाचार्याजी महाराज के चरणोंमें गिर पड़े और क्षमा मांगते हुए रोने लगे।संत श्री लालाचार्याजी महाराज तो परम वैष्णव थे ,उन्हें उन लोगो पर किंचित रोष न था।वे बोले -आपसब ब्राह्मण है ,इस प्रकार कहकर मुझे लज्जित न करे।आप सबकी कृपासे मुझे वैष्णव पार्षदों के दर्शन हुए,अतः मई तोह स्वयं आपका कृतज्ञ हूँ।
ब्राह्मणों को अब श्री लालाचार्यजी के साधुत्व और सिद्धत्वमें रंचमात्रभी संदेह नहीं रह गया।उनसब ने श्री लालाचार्याजी के यहाँ जाकर भग्वाद्प्रसाद के रूपमें पृथ्वी पर गिरे हुए अन्नकणोंको बीन-बीनकर खाया और आनंदमग्न हो गए ।उनसब ने आचार्य श्री का शिष्यत्व ग्रहण किया और वैष्णव दीक्षा प्राप्त की ।