एक भक्त हुऐ जीनका नाम श्री तिलोकजी था।श्री तिलोकभक्तजी पूर्व देशके रहनेवाले थे और जातिके सोनार थे। इन्हीने हृदयमें भक्तिसार-संतसेवा का व्रत धारण कर रखा था।
एक बार वहाँके राजाकी लड़कीका विवाह था। उसने इन्हें एक जोड़ा पायजेब बनाने के लिए सोना दिया,परंतु इनके यहाँ तो नित्यप्रति अनेको संत महात्मा आया करते थे,उनकी सेवासे इन्हें किंचिन्मात्र भी अवकश नहीं मिलता था, अतः आभूषण नहीं बना पाये। जब विवाह के दो दिन ही रह गए और आभूषण बनकर नहीं आया तो राजाको क्रोध हुआ और सिपहियोंको आदेश दिया कि तिलोक सोनारको पकड़ लाओ। सिपहियोंने तुरंत ही इन्हें लाकर राजाके सम्मुख कर दिया।राजने इन्हें डाँटकर कहा कि तुम बड़े धूर्त हो। समयपर आभूषण बनाकर लानेको कहकर भी नहीं लाये। इन्होंने कहा-‘महाराज! अब थोडा काम शेष रह गया है,अभी आपकी पुत्रीके विवाहके दो दिन शेष है। यदि मै ठीक समयपर न लाऊँ तो आप मुझे मरवा डालना ‘।
राजाकी कन्याके विवाहका दिन भी आ गया,परंतु इन्होंने आभूषण बनाने के लिए जो सोना आया था,उसे हाथसे स्पर्श भी नहीं किया। फिर उन्होंने सोचा की समयपर आभूषण न मिलनेसे अब राजा मुझे जरूर मार डालेगा,अतः डर के मारे जंगलमे जाकर छिप गए।यथासमय राजाके चार-पांच कर्मचारी आभूषण लनेके लिए श्री तिलोकजी के घर आये।भक्तके ऊपर संकट आया जानकर भगवान् ने श्री तिलोकभक्तका रूप धारणकर अपने संकल्पमात्रसे आभूषण बनाया और उसे लेकर राजाके पास पहुँचे। वहाँ जाकर राजाको पायजेब का जोड़ा दिया। आभूषण को देखते ही राजाके नेत्र ऐसे लुभाये की देखनेसे तृप्त ही नहीं होते थे। राजा श्री तिलोकजीपर बहुत प्रसन्न हुआ। उनकी पहलेकी भूल-चूक माफ़ कर दी और उन्हें बहुत-सा धन पुरस्कार में दिया।
श्री तिलोकरूपधारी भगवान् मुरारी इस प्रकार धन लेकर श्री तिलोकभक्त के घर आकर विराजमान हुए। श्री तिलोकरूपधारी भगवान् ने दूसरे दिन प्रातःकाल ही महान उत्सव किया।उसमे अत्यन्त रसमय,परम स्वादिष्ट अनेको प्रकारके व्यंजन बने थे। साधु-ब्रह्मणोंने खूब पाया। फिर भगवान् एक संतके रूप धारणकर झोलीभर साधू संतो का बचाहुआ सीथ-प्रसाद लिए हुए वहाँ गए,जहाँ श्री तिलोक भक्तजी छिपे बैठे थे। श्रीतिलोकजी को प्रसाद देकर संत रूपधारी भगवान् ने कहा-‘श्री तिलोकभक्त के घर गया था।उन्होंने ही खूब प्रसाद पवाया और झोली भी भर दी।’
श्री तिलोकभक्त ने पूछा- कौन तिलोक?भगवान् ने कहा -‘जिसके समान त्रैलोक्यमें दूसरा कोई नहीं है।’ फिर भगवान् ने पूरा विवरण बताया। संतरूपधारी भगवान् के वचन सुनकर श्री तिलोकजी के मन को शांति मिली।फिर भगवत्प्रेम में मग्न श्री तिलोकजी रात्रिके समये घर आये। घरपर साधू-संतो की चहल-पहल तथा घरको धन-धान्य से भरा हुआ देखकर श्री तिलोकजीका श्री प्रभु के श्रीचरणोंकी ओर और भी अधिक झुकाव हो गया ।वे सामझ गए कि श्री प्रभुन मेरे उपर महान कृपा की है,निश्चय ही मेरे किसी महान भाग्यका उदय हुआ है।