एक राजा था,उसे कुष्ठ रोग हो गया था।वैद्यो ने कहा की पास के सरोवर से हंसो को मारकर बनायीं हुई दवाई से ही आपका रोग अच्छा हो सकता है।वहा पास के उस सरोवर के समीप साधू महात्माओ का आवागमन होने के कारण वहाँके हंसो में भी भक्ति प्रकट हो गयी थी।
वह हंस संतवैष्णव वेश (तिलक,तुलसी और मुखमे हरिनाम) का बाडा आदर करते।एक दीन राजाके आज्ञा अनुसार चार सैनिक(बधिक) हंसोको लाने मानसरोवर पर गए,परंतु हंस उन्हें देखकर उड़ जाते थे। सैनिको ने देखा के जब कोई साधु-संत हंसो के पास जाते है तब वह नहीं डरते है। इस रहस्य को जानकार चारो सैनिक वैष्णववेश बनाकर फिर मानसरोवर पर गए।हंसो ने वैष्णववेश देखकर भी यह जान लिया की यह सैनिक(बधिक) ही है।वेश बनावटी है,परंतु वैष्णववेश के प्रति आदर निष्ठा के कारण अपनेको बँधा लिया। सैनिक हंसोको लेकर राजाके पास आए।
हंसो की संतवेशनिष्ठा देखकर श्री भगवान कृष्ण ने वैद्यका स्वरुप धारण किया और राजा के नगरमे जाकर घोषणा की के मै कुष्ठ आदि सभी असाध्य रोगोंकी सफल चिकित्सा जानता हूँ।लोग इन्हें राजाके समीप ले आये । भगवन ने कहा -आप इन पक्षियों को छोड़ दे, मैं आपको अभी बिलकुल नीरोगी किये देता हूँ।
राजाने कहा ये पक्षी बड़ी कठिनाई से हमें मिले है,पहले आप मेरा रोग ठीक करे तब मैं इन्हें जाने दूंगा। यह सुनकर वैद्यजीने अपनी झोलीसे औषधि निकली और पिसवाकर राजाके शरीरपर मलवायी।राजाका कुष्ठ दूर हो गया। राजा अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने हंसोको छोड़ दिया।
इस चरित्रको देखकर सैनिको ने अपने मनमे विचार किया कि जिस वैष्णववेश का पक्षियों ने ऐसा विश्वास किया और उसीके फलस्वरूप उनके प्राण भी बच गए,ऐसे पवित्र वेशको हम मनुष्य होकर अब कैसे छोड़ दे! इस प्रकार वे सैनिक सच्चे संत बन गए,उन्होंने कभी इस वेश का त्याग नहीं किया,उनकी मति भगवानकी भक्तिमें मग्न हो गयी।
**श्री नाभादास गोस्वामी के मतानुसार हमें सभी वैष्णववेश धारीयों को भक्त मानकर उनका आदर करना चाहिए और जिन व्यक्तियो में वैष्णव वेश अथवा कोई भक्ति चिन्ह नहीं दिखाई पड़ते उन्हें ऐसा समझ कर आदर करे कि इनमे अभी तक भक्ति प्रकट नहीं हुई ,छिपी हुई है। क्योंकि यदी किसी व्यक्ति में बहारी रूप से भक्ति चिन्ह (तिलक,तुलसी,हरिनाम) कदाचित न हो परंतु वह अगर अंदरसे भक्त हुआ तो उसका अनादर करने से भक्ति की हानि हो सकती है।इसीलिए समस्त जीवोंको भगवन का अंश मान उनका सम्मान करे।