श्री सदानन्दजी महाराज ने भगवद्भक्तों की सेवाके द्वारा भगवान् को प्रसन्न किया। श्री सदानन्दजी महाराज बड़े प्रेम से संत सेवा करते थे।श्री सदानन्दजी सर्वस्व त्यागकर भी सन्तोको सन्तुष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझते थे।एक बार एक संत इनके पास आकर बोले- मैं बड़ा अभागा हूँ। मरे पास रहने के लिये घर नहीं है।जो था वह भी छिन गया।खाने – पहनने के लिये अन्न-वस्त्र नहीं है,अतः मेरे रहने और खाने-पीनेका प्रबन्ध कर दीजिये।श्री सदानन्द जी ने कहा-आप अपने कुटुम्ब के साथ आज ही मेरे स्थान पर आ जाइये,रहिये,खाइये।मैं अपने लिए वन में एक झोपड़ी बना लूंगा।
ऐसा कहकर अपना सर्वस्व उसे सौंपकर स्वयं वनमें जाकर रहने लगे।भगवान् ने अपने एक धनी भक्त को स्वप्नादेश दिया कि ‘मेरा प्रिय भक्त सदानन्द वनमें रह रहा है।एक आश्रम बनवाकर उसमे उसे रखों ।’ उसने आश्रम बनवाकर इन्हें रखा और खर्चे के लिये सीमित सीधा- सामान भी देने लगा,पर इनके यहाँ संतोंकी भीड़ अधिक होती। कभी-कभी सामानकी कमी पडने लगी।एक दिन श्री सदानन्द जी उस स्थान को छोड़ कर कही चले गये।
इनके जाते ही साधुओं की बड़ी जमात आ गयी। तब भगवान् श्रीरामजी सदनन्दजी का रूप धारण करके आये और उन्होंने सभी संतोकी खूब सेवा की तथा आश्रमको अन्न-धन से भर दिया।फिर वैश्य भक्त का रूप बनाकर श्री सदनन्दजी के पास आये और बोले – अरे! आप यहाँ कैसे आ गये? अभी तो आप संतोंकी पंगत करा रहे थे।मैंने देखा है,आपके आश्रम में ऋद्धि-सिद्धि के भण्डार भरे है।पंगत करके सन्तोंने वरदान दिया है कि सदानन्द! तुम्हारे यहाँ सदा ही आनन्द रहेगा। कभी किसी वस्तुकी कमी न होगी।यह सुनकर आप वापस आये और सब स्थिति देखकर मन-ही-मन अपने आराध्य प्रभु श्रीरघुनाथजी की कृपा की अनुभूति की।
हरिः शरणम्
जय जय श्री सीताराम