स्वामी श्रीअग्रदेवाचार्य जी के एक शिष्य हुए है, श्री जंगीजी महाराज। ये बड़े ही सिद्ध एवं भजनानंदि संत थे।एक बार तीर्थाटन एवं भक्ति – प्रचारार्थ भ्रमण करते – करते एक विरक्त साधू के स्थान पर जाकर ठहर गए।
वे स्थानधारी संत चिंतित थे। श्री जंगीजी ने चिंता का कारण पूछा। उसका कारण संतजी ने बताया, की उनका स्थान एक यवन(मुग़ल) शासक के किलेके निकट था। वह किले का विस्तार करना चाहता था,अतः स्थानधारी संत से उसने स्थान को छोड़ कर चले जाने को कहा गया था।
संत अभी अपनी चिंता जंगीजी को सुना ही रहे थे की इतने में ही बहुत से यवन आ गए और उन्होंने कहा की तुम फ़ौरन यहाँ से है जाओ ,किले का विस्तार करना है।
श्री जंगीजी ने उनसे कहा- तुम लोग जाकर अपने बादशाह से कह दो के वह हमलोगो के रहने योग्य ऐसा ही दूसरा स्थान बनवा कर दे,तब हम इस स्थान को खाली करेंगे ।
मदान्ध यवनों ने जंगीजी की बात पर ध्यान नहीं दिया और स्थानको तोड़ने-फोड़ने,गिराने उजाड़ने लगे। जंगीजी सोच रहे थे की अपना प्रभाव न दिखाऊ परंतु अब जंगीजी अपना प्रभाव दिखानेको विवश हो गए। जंगीजी जय श्री राम बोलकर आसान से उठे और किले के पास जाकर उन्होंने उसमे एक ऐसा चरण प्रहार किया की वह दिवार धराशाही हो गई। इतनी लंभी मजबूत किले की दीवार गिरी देखकर यवनों के होश उड़ गए।
उन्होंने जा कर बादशाह से कहा। तौबा तौबा करता बादशाह दौड़कर आया और चरणों में अपना ताज उतार कर रख दिया ।चरणों में गिरकर क्षमा प्रार्थना भी की और बहुत सा धन दिया।श्री जंगीजी ने वह धन संत सेवा में लगा दिया। इस प्रकार श्री जंगीजी महाराज ने स्थान एवं संतो की रक्षा की।
भक्त श्री जंगीजी महाराज की जय।