(१) श्री रघुलाल जी का जयमलजी के वचन की रक्षा करना:
श्री जयमलजी महाराज राजस्थान की मेड़ता रियासत के राजा थे। श्री जयमल जी रसिकशिरोमणि संत श्री हितहरिवंश महाप्रभू जी के शिष्य और श्रीराधा-मधवजी के अनन्य भक्त थे। गुरुदेव श्री हरिवंश महाप्रभु द्वारा प्रदान किया हुआ इनका उपासना मन्त्र तो श्री राधाकृष्ण मंत्र था परंतु इनके आराध्य तो धनुषधारी श्री रामजी थे। ठाकुरजी की सेवा पूजा में उनका बड़ा अनुराग था,उसमे उन्हें जरा भी व्यवधान स्वीकार नहीं था। वे नित्य १० घडी (४ घंटा )भजन पूजा किया करते। पूजा के समय कोई कितनी भी महत्वपूर्ण राजकीय सूचना क्यों न हो,वे उसे नहीं सुनते थे और सन्देश देने वाले एवं व्यवधान करने वाले को मृत्युदंड की शिक्षा थी।
राजाका एक भाई था,परंतु वह राजासे ठीक विपरीत स्वभाव का था।उसे भगवान् की सेवा-पूजासे कोई मतलब नहीं था,साथ ही वह जयमलजी से द्वेष भी करता था। यद्यपि वह भी पास ही के राज्य मांडोवर जैसे समृद्ध राज्यका राजा था,पर उसकी महत्वाकांक्षा राजा जयमलके भी राज्यको हस्तगत कर लेने की थी। उसे किसी प्रकार राजाके सेवा- पूजाके नियमकी जानकारी हुई तो उसने एक कुटिल योजना बनायी ।
उस दुष्टने सोचा कि जब राजा जयमल पूजा कर रहे हो,तभी मेड़ता पर हमला कर देना चाहिए; क्योंकि मृत्युदंडके भयसे उन्हें कोई आक्रमण की सुचना देने नहीं जयेगा। ऐसा सोचकर उसने मेड़ता राज्य पर आक्रमण कर दिया। राज्यपर आये इस प्रकारके संकट को देखकर मंत्रियो ने विचार-विमर्श करके राजमातासे निवेदन किया कि आप ही महाराजको सूचना देनेमे समर्थ है, क्योंकि आपके प्रति पूज्य भाव होने से राजा आपको कुछ नहीं कहेंगे और उनतक सूचना भी पहुच जायेगी,फिर वे जैसा आदेश देंगे,हम लोग वैसा ही करेंगे,दूसरे किसीको भेजने पर महाराज उसकी बात भी न सुनेंगे और उसे प्राणदंड भी दे देंगे।
राज्यपर आये संकट की गंभीरता को देखते हुए राजमाता मंत्रियो के परामर्शसे मंदिर में गयी और ठाकुरजी की सेवा पूजा में रत राजा जयमल को आक्रमण की सुचना दी। राजाने माताकी बात सुनकर इतना ही कहा ‘ भगवान् राम सब भला ही करंगे’ और स्वयं नित्य की भाँती सेवा-पूजामें लगे रहे।
शत्रुसेना निर्बाध रूपसे बढ़ी चली आ रही थी,जब सेना मेडताके एकदम निकट पहुँच गयी तो भगवान् से रहा नहीं गया। श्री रघुनाथजी ने सैनिक का वेश बनाया,एक हाथमे तलवार एक हाथमे भाला धारण किया। पीठपर ढाल बाँधी और राजाकी घुड़सालमे जाकर राजाकी सवारी का अश्व खोल दिया,फिर उसपर सवार होकर अकेले ही युद्धभूमि पर चल पड़े ।भगवान् ने युद्धभूमि पर सम्पूर्ण सेना को गिरा दिया,प्राण किसीके नहीं लिए।थोड़ी देर में युद्धका मैदान खाली हो गया। युद्धक्षेत्रमें केवल शत्रु राजा ही अकेला बचा रहा,अन्य सारी सेना भाग खड़ी हुई। शत्रु भी मेरे भक्त जयमलजी का भाई है यह सोचकर भगवान् ने उसको नहीं मारा और उसे अपनी सुंदर छवि का दर्शन कराया जिससे वह भाई की शत्रुता भूल गया । वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। भगवान् वापस लौट गए और घोड़े को अपने स्थानपर वापस बाँध दिया।
जब श्री जयमलजी की पूजा-सेवा समाप्त हुई तब उन्हें मताद्वारा दी गयी आक्रमण की सुचना की याद आयी,तब वे शीघ्र युद्धभूमिकी ओर चल दिए। शाही घोड़े को पसीने से लतपत देख दूसरा घोडा लिए वे युद्धभूमि पर पहुंचे।वहाँ उन्होंने देखा कि आक्रमण करने वाला भाई घायल पड़ा है।उसने जयमलजी को देखते ही सर झुका लिया और बोला आपको जो दंड देना है मुझे स्वीकार है। जयमलजी ने पूछा, पहले यह तो बताओ तुम्हारी यह दशा किसने की?उसने कहा तुम्हारे तरफसे मात्र एक सांवला सिपाही घोड़ेपर बैठकर आया था,उसने सारी सेना को युद्धभूमि पर घायल कर गिरा दिया,उसने अपने तीखे बाणों से कम और अपनी सुन्दर अंखियो एवं मुस्कान से अधिक घायल किया।उसकी दृष्टि पड़ते ही मै मूर्छित हो कर गिर गया।
राजा जयमलको अब समझते देर नहीं लगी की वह सांवला सिपाही कौन था?जयमलजी उसके चरणों में पड़कर रोने लगे के तू बड़ा भाग्यशाली है,तुझे तेरी सेना सहित श्री रघुलाल जी के दर्शन हुए। राजाके भाई ने विनंती की,के उस सांवले सिपाही के दर्शन करा दो।जयमलजी के पुकार करने पर भगवान ने उसी सुंदर रूप का दर्शन कराया। जयमलजी भाईसे कुशल-प्रश्नकर उसे वापस घर भेज दिया।उधर भाईके मन में भी पश्चाताप हुआ के मैंने अपने संतप्रकृति भाई से इस प्रकार द्रोह किया।उसने बार बार क्षमा मांगी और स्वयं भी भगवान् का भक्त हो गया।
इधर जयमलजी को दुःख हुआ कि मेरे कारण भगवानको इतना कष्ट उठाना पड़ा।मैंने माता से कहा था, भगवान् राम सब भला ही करेंगे। इस कारण से भगवान् को राज्य की रक्षके लिए स्वयं युद्ध करने गए।
(२) जयमलजी की रानी को बालरूप में श्रीरघुलाल जी का दर्शन होना:
राजा जयमलजी का अपने ठाकुरजी के प्रति बड़ा अनुराग था।एक दिन गर्मी के समय विश्राम करते हुए वे सोचने लगे, यहाँ ख़स की तटिया, हवादार कमरा ,गीले पडदे सब सुविधा होने पर भी गर्मी लग रही है और श्री ठाकुरजी का मंदिर तो नीचे मंजिलमे है उनको वहा कितनी गर्मी लगती होगी। राजाने छतपर सुन्दर हवादार कमरा बनवाया और श्री ठाकुरजी की वही पर नित्य छत पर जा कर मानसी सेवा करने लगते।
श्री रघुलालजी के उस शयनगार में जानेके लिए राजाने एक लकड़िकि सीढ़ी बनवायी। रात में राजा स्वयं ऊपर छतपर जाकर पुष्पादिसे शय्यकि रचना करते एवं शयन भोग,इत्र,जल ,पान ताम्बूल आदि सभी वस्तुएँ यथास्थान रखकर निचे उतर आते और सीढ़ी हटाकर अलग रख देते।ऊपर अन्य किसीको भी जाने की मना किया गया था। कमरे से थोड़ी दूर बैठकर राजा मानसी सेवा में ध्यान करते श्री रघुलालजी सुखपूर्वक शयन कर रहे है और वे कुछ देर चरण सेवा करके शयन करने चले जाते। राजाके इस रहस्य को रानी भी नहीं जानती थी। रानी ने सोचा ,ये नित्य १०घडी (४ घंटा) सेवा-पूजा करते ही है परंतु इसके अतिरिक्त भी रात में यह क्या करते है इस बात को जानने की अभिलाषा रानी के मन में जगी।
एक दिन रातमे रानी ने सीढ़ी लगायी और ऊपर चढ़ गयी। थोडा सा परदा हटाकर झाँककर देखा तो उसे एक सुंदर सुकुमार किशोर बालक शयन करता हुआ दिखाई पड़ा। ऐसा सुंदर स्वरुप रानी ने कभी न देखा था। रानी पुनः चुप-चाप उतर आयीं और सीढ़ी को यथा स्थान रखकर महलमे चली गयी। प्रातः काल आकर रानी ने अपने पतिदेवको सब बात सुनायी और कहा कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया।
राजा जयमलजी ने उसे डाँट- फटकारकर कह दिया की फिर कभी ऐसा नहीं करना,लाल जी की नींद में व्यवधान हो सकता है और मन-ही-मन यह जानकार प्रसन्न हुए कि इसके बड़े भाग्य है,जो इसे श्री लालजी के दर्शन हो गए। ऐसे राजा जयमलजी जो एक महान भक्त,महान गोभक्त,महान राष्ट्रभक्त हुए। धन्य है भक्त श्री जयमलजी महाराज।
भक्तवत्सल भगवान् की जय।।
जय जय श्री सीताराम।।
आपको दंडवत प प्रणाम महानुभाव आप ने हमें भक्तमाल कथा का रसपान कराया 💐💐💐💐💐💐💐🎂🎂🎂💐💐💐🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
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