आमेरनरेश श्री पृथ्वीराज जी स्वामी श्रीकृष्णदास पयोहारी जी के शिष्य थे । एक बार श्री स्वामी जी की आज्ञासे राजाजी उनके साथ द्वारका जी की यात्रा के लिये तैयार हुए । राजाके दीवान ने जब यह बात सुनी तो उसे दुख हुआ । वह रातको एकान्तमें श्रीपयोहारीजी महाराज़के पास गया और महाराजसे चुपकेसे कानमें कहा- महाराज जी ! इस समय राजा तन-मन और धनसे साधुओं की सेवामें लगे हुए हैं, आमेर नगरकी जनतामें भक्तिकी सुंदर भावना व्याप्त है । राजाके चले जानेसे साधुसेवामें तथा भक्तिप्रचार में बाधा होगी । अत: मेरे विचारसे तो आप राजाको साथ न ले जायें, सो ही ठीक है। श्रीपयोहारी जी ने कहाँ- तुम जाओ, मैं राजाको साथ नहीं ले जाऊँगा ।
मंत्रीकी बातको स्वामीजीने राजासे नहीं बताया । प्रातःकाल राजा पृथ्वीराज हाथ जोडकर श्रीस्वामीजीके सामने खड़े हो गये । तब श्रीस्वामीजी ने आज्ञा दी कि -तुम मेरे साथ न चलकर यहीं आमेरमें ही रहो और साधुुसेवा करो ।राजाने श्रीपयोहारीजी से प्रार्थना की – प्रभो ! मैं श्रीद्वारकानाथ जी के दर्शन, श्रीगोमती-संगममें स्नान एवं भुजाओं-में शंख-चक्रकी छाप धारण करूँ, इसीलिये आप अपने मनमें मुझे भी साथ ले चलनेकी इच्छा कीजिये।
श्री स्वामीजी ने कहा -राजन्! तुम अपने मनमें तनिक भी चिंता न करों । दर्शन, स्नान और छाप ये तीनों लाभ तुम्हें घर बैठे ही मिलेंगे । राजाने कहा- आपने जो आज्ञा दी, उसे मैंने सिरपर धारण कर लिया । इसके बाद श्रीपयोहारीजीने प्रस्थान किया ।
कहते हैं कि राजाकी भक्तिको देखकर श्रीपयोहारी जी ने अपनी योगसिद्धिसे आधी रात के समय राजमहल-में प्रकट होकर राजाको वहीं श्रीद्वारकाधीशजीके दर्शन करा दिये । राजाने प्रदक्षिणा करके साष्टांग दण्डवत की । भगवान ने कहा-मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनो ” यह गोमती संगम
है, तुम इसमें स्नान कर लो । प्रभुकी बात सुनकर राजाने बड़े प्रेमसे स्नान किया, परंतु गोता लगाकर जब बाहर आये तो वहाँ भगवान् नहीं दिखलायी पड़े ।
शंख-चक्र-की छाप राजाके शरीरमें लगी थी । इधर सोकर उठनेमें राजाको विलम्ब हुआ जानकर रानी उन्हें जगाने आयी । उन्होंने देखा कि राजाका शरीर भीगा हुआ है । केसे भीगा है, पूछनेपर राजाने कहा – अभी मैंने श्रीगोमती जी में स्नान किया है, तुम भी मेरे शरीर एवं वस्त्रो में लगे जलका स्पर्श कर लो और श्रीद्वारकानाथजीको हृदय में धारण कर लो। रानीने ऐसा ही करके अपनेको बड़भागिनी माना ।
सवेरा होते ही आमेर नगरमे उसके बाद सम्पूर्ण राज्यमें भक्तिके चमत्कार का शोर मच गया । बहुत-से लोगोने आकर राजाका दर्शन किया, समाचार पाकर दूर दूरतक के अनेक बड़े बड़े सन्त और महन्त दौड-दौड़कर आये और उन सभीने राजाके शरीरपर शंखचक्र की छापके दर्शन करके अत्यन्त सुख पाया । नाना प्रकारकी बहुतसी वस्तुएं भेंटमें आने लगी ।
सभी लोग राजाके प्रेम की महिमा को गाते तो उसे सुनकर राजा लज्जित होते । वे अपने मनमें यही सोचते कि है यह सब भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा है । लोगों ने भी समझ लिया कि राजापर गुरुगोविन्दकी महती कृपा है । इसके बाद राजाने जहां पर दर्शन हुआ था, वहीं एक सुन्दर एवं विशाल मंदिर का निर्माण कराया । वे सदा-सर्वदा सेवा पूजा, भजनमें ही लगे रहते ।
एक बार कोई नेत्रहीन ब्राह्मण श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के द्वारपर नष्ट हुई नेत्र-ज्योतिको प्राप्त करनेके लिये धरना देकर पड़ गया । पड़े-पड़े उसको कई महीने व्यतीत हो गये। श्रीशंकरजीने उसे दो-चार बार स्वप्नमें आज्ञा दी कि -हठ छोड़ दो, घरको जाओ, ये नेत्र अब फिरसे तुम्हें नहीं मिलेंगे । परंतु उस ब्राह्मणने अपना हठ नहीं छोडा, द्वापर पडा ही रहा ।
उसके इस सच्चे हठयोग को देखकर भगवान् शिवने दयासे द्रवित होकर आज्ञा दी कि तुम आमेरनरेश पृथ्वीराज़ के अंगोछेसे अपने नेत्रोंको पोंछो तो तुम्हें नेत्र ज्योति प्राप्त हो जायगी । उस अन्धे ब्राह्मणने आकर राजा पृथ्वीराजसे यह बात कहीं तो वे ब्राह्मणकी महिमाको विचारकर डर गये कि – ऐसा करना अनुचित है । परंतु ब्राह्मणके आग्रह एवं लोगोंके समझानेपर राजाने एक नवीन वस्त्र मंगवाकर उसे अपने शरीरसे छुवाकर ब्राह्मणको दे दिया । आँखों में लगाते ही उसे नेत्र ज्योति प्राप्त हो गयी ।
समस्त संत भक्तो की जय।
भक्तवत्सल भगवान् की जय।।