समयके परिवर्तनसे कभी तो देवता बलवान् हो जाते है और कभी दानव । एक बार दानवोंकी शक्ति बहुत अधिक हो गयी और वे देवों को बहुत अधिक कष्ट पहुंचने लगे । देवता बहुत संत्रस्त और संतप्त हुए । इसलिये अपने दुखोंकी निवृतिके लिय भगवान विष्णुके समीप गये और उनकी स्तुति करने लगे ।
स्तुति से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान् ने उनके आनेका कारण पूछा । तब देवोंने हाथ जोड़कर विनती की कि ‘हे महाराज ! हमलोगों को दुष्ट दानव अपरिमित कष्ट पहुंचा रहे है और हम लोगो का एक स्थानपर रहना भी कठिन प्रतीत हो रहा है ।
अत: हे भगवन् ! आप इसका कुछ उपाय बताइये, आपके अतिरिक्त अन्य कोई हमें शरण देनेवाला नहीं है । देवो का ऐसा हृदयविदारक करुण क्रंदन सुनकर विष्णु भगवान् ने उनसे कहा कि – मै परम कारुणिक श्रीमहादेव जी की आराधना कर इस कार्य को करूँगा । उनके ऐसे वचन सुनकर सभी देवता अपने अपने धाम को चले गये ।
इधर श्री विष्णु भगवान् क्षीरसागर का सुखद शयन छोड़ कैलास पर्वत् के समीप पहुंचे और वहाँ अग्नि का कुण्ड बनाकर तथा हरीश्वर नामक ज्योतिर्लिङ्ग की स्थापना कर देवदेव भगवान् महादेव की आराधना मानसरोवर से समुत्पन्न कमलोंसे विधिपूर्वक करने लगे । इनका नियम था कि श्रीशिवसहस्त्र नामका पाठ करते जाते और प्रत्येक नामपर एक एक कमल शिबजीको चढाते जाते है इस प्रकार प्रतिदिन सहस्त्र कमलोंसे महादेव की पूजा करते । ऐसी आराधना करते करते जब बहुत समय व्यतीत हो गया, तब एक दिन महादेवजीने उनकी भक्तिकी परीक्षा करनेके लिये उन हजार पुष्योंमेंसे एक पुष्प अपनी लीलासे कम कर दिया ।
सहस्त्रनाम समाप्त करते करते जब अन्तिम नाम आया तो एक कमल कम देख, विष्णु बहुत चिन्तित हुए और कमल पुष्पकी प्राप्तिके लिये सम्पूर्ण पृथ्वीपर भ्रमण कर आये, किन्तु भगवान् शिवकी लीलासे उन्हें कहीं भी कमल पुष्प न मिल सका । तब उन्होंने एक सहस्त्र संख्या पूर्तिके लिये अपना कमलरूपी नेत्र शिवजीके चरणों में भक्तिपूर्वक समर्पित कर दिया । इम अटल भक्ति को देखकर आशुतोष भगवान् शंकर परम प्रसन्न हुए और उसी समय प्रकट होकर प्रसन्न वदनसे बोले- विष्णों ! मैं अपकी भक्ति और प्रेमसे परम संतुष्ट हूँ । आप मनो वाञ्चित वर मांगिये, आपके लिये कुछ भी अदेय नहीं।
भगवान् ऐसा वचन सुनकर भगवान विष्णुने हाथ जोडकर इस प्रकार प्रार्थना क्री – प्रभों इस समय दैत्य बहुत प्रबल हो गये है और इतना उपद्रव कर रहे है कि देवताओ का रहना कठिन हो रहा है । सम्पूर्ण त्रैलोक्य इस समय उनसे पीडित है । आप देवताओं तथा समस्त ज़गत् की रक्षा का कोई उपाय कीजिये । स्वामिन् ! इस समय मेरे अस्त्र-शस्त्र भी निष्फल से हो गये है, इसीलिये मैं आपकी शरणमे आया हूँ। विष्णु के ऐसे करुणाजनक वचन सुनकर भगवान् शिवजीने तेजोमय सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया और कहा – इससे सभी दैत्योंका विनाश हो जायगा । यह कहकर वे अन्तर्धान हो गये ।
तत् प्राप्य भगवान् विष्णुुर्दैैत्यांस्तान् बलवत्तरान् ।
जघान तेन चक्रेण द्रुतं सर्वान् बिना श्रमम् ।।
जगत् स्वास्थ्यं परं लेभे बभूवु: सुखिन: सुरा: ।
सुप्रीत: स्वायुधं प्राप्य हरिरासीन्महासुखी ।।
(शिवपुराण ,को.रु.सं, अ.३४ )
विभिन्न देवताओं के पास अपने-अपने चक्र हुआ करते थे जैसे शंकरजी के चक्र का नाम -भवरेंदु ,विष्णुजी के चक्र का नाम -कांता ,देवी का चक्र का नाम -मृत्यु मंजरी और श्रीकृष्ण के चक्र का नाम – सुदर्शन ।
श्री शिवमहापुराण के कोटिरुद्रसंहिता में सुदर्शन चक्र से जुडी एक कथा का उल्लेख है :
प्राचीन समय में ‘वीतमन्यु’ नामक एक ब्राह्मण थे। वह वेदों के ज्ञाता थे। उनकी ‘आत्रेयी’ नाम की पत्नी थी, जो सदाचार युक्त थीं। उन्हें लोग ‘धर्मशीला’ के नाम से भी बुलाते थे। इस ब्राह्मण दंपति का एक पुत्र था, जिसका नाम ‘उपमन्यु’ था। परिवार बेहद निर्धनता में पल रहा था। धर्मशीला अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकती थी। वह बालक दूध के स्वाद से अनभिज्ञ था। धर्मशीला उसे चावल का धोवन ही दूध कहकर पिलाया करती थी।
एक दिन ऋषि वीतमन्यु अपने पुत्र के साथ कहीं प्रीतिभोज में गये। वहाँ उपमन्यु ने दूध से बनी हुई खीर का भोजन किया, तब उसे दूध के वास्तविक स्वाद का पता लग गया। घर आकर उसने चावल के धोवन को पीने से इंकार कर दिया। दूध पाने के लिए हठ पर अड़े बालक से उसकी माँ धर्मशीला ने कहा- पुत्र, यदि तुम दूध को क्या, उससे भी अधिक पुष्टिकारक तथा स्वादयुक्त पेय पीना चाहते हो तो विरूपाक्ष महादेव की सेवा करो। उनकी कृपा से अमृत भी प्राप्त हो सकता है। उपमन्यु ने अपनी माँ से पूछा- माता, आप जिन विरूपाक्ष (महादेव )भगवान की सेवा-पूजा करने को कह रही हैं, वे कौन हैं?
धर्मशीला ने अपने पुत्र को बताया कि – प्राचीन काल में श्रीदामा नाम से विख्यात एक महान असुर राज था। उसने सारे संसार को अपने अधीन करके लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। उसके यश और प्रताप से तीनों लोक श्रीहीन हो गये। उसका मान इतना बढ़ गया था कि वह भगवान विष्णु के श्रीवत्स को ही छीन लेने की योजना बनाने लगा । उस महाबलशाली असुर की इस दूषित मनोभावना को जानकर उसे मारने की इच्छा से भगवान विष्णु महेश्वर शिव के पास गये। उस समय महेश्वर हिमालय की ऊंची चोटी पर योगमग्न थे। तब भगवान विष्णु जगन्नाथ के पास जाकर कई वर्षो तक पैर के अंगूठे पर खड़े रह कर परब्रह्म की उपासना करते रहे।
भगवान विष्णु की इस प्रकार कठोर साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया । उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- देवेश ! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है। सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र, वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें। तब भगवान विष्णु ने उस सुदर्शन चक्र से असुर श्रीदामा को युद्ध में परास्त करके मार डाला।