3. धर्ममें कपटके लिये तनिक भी स्थान नहीं है । बाहर भीतर की स्पष्टता ही धर्मका प्रधान लक्षण है । जो भीतर से दूसरे प्रकार का है, बाहर से दूसरे प्रकार का है, इम उसे धर्मात्मा नहीं कह सकते । सब प्राणियों का समान सुहृद् धर्म अपने अंदर किसी प्रकारका कपट भला कैसे रख सकता है ? विदुर धर्मराज युधिष्टिर के लिये जैसे कुछ हैं, वैसे ही कोरवों के लिये भी हैं । वे पाण्डवो से जितना प्रेम करते हैं उतना ही कौरवों के साथ भी स्पष्ट ही रखते हैं । वे हितकी बात नि:संकोच कह देते हैं । इस बात की परवा नहीं करते कि उसे कोई मानेगा या नहीं । उनको स्पष्ट कहनेमें कहीं कोई भय नहीं है, भय तो अधर्म में ही है, धर्ममे नहीं । विदुरके जीवनमे हम इस बातको पूर्णता पाते हैं कि वे जैसे कुछ हैं, स्पष्ट हैं, उन्हें दुर्योधन भी जानता है, युधिष्ठिर भी जानते हैं और कोई भी उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं सकता।
पाण्डवो की समृद्धि और उनके राजसूय – यज्ञकी सफलता , देखकर दुर्योधन के हृदयमें ईर्ष्या की आग धधकने लगी । विदुर की अनुपस्थिति में उसने धृतराष्ट्र को उलटा सीधा समझाकर और दबाव डालकर उनसे जूआ खेलने की आज्ञा प्राप्त कर ली। परंतु धृतराष्ट्र इस बातको विदुरसे छिपा नहीं सके । उनके जीवनमे इसके पूर्व ऐसा कोई अवसर नही आया था, जब उन्होंने विदुरको सलाहके बिना किसीको कोई आज्ञा दे दी हो । आज जूएको आज्ञा देकर वे पछताने लगे और तुरंत दूत को भेजकर विदुरको बुलवाया । विदुर ने आकर धृतराष्ट्र से स्पष्ट कह दिया कि मैं कदापि जूएका अनुमोदन नहीं कर सकता । आपने यह काम बडा ही अनुचित किया है । इससे पारस्परिक
विरोध बढ जायगा और वंशका सत्यानाश हो जायगा। धृतराष्ट्र ने विदुर की बात से प्रभावित होकर दुर्योधन को बुलवाया और जूआ न खेलने के लिये कहा । परंतु उसने धृतराष्ट्र की एक न मानी, जूआ हुआ और पाण्डव हारने लगे ।
जूएके बीचमें ही विदुरने धृतराष्ट्र को बहुत समझाया, अनेकों आख्यायिकाएँ सुनायी और कहा कि जैसे मरने वाले को दवा नहीं रुचती, वैसे ही आपको भी नीति की बात पसंद नहीं आती। दुर्योधन लोभके कारण अधर्म और अन्याय कर रहा है । यह जूए केनशेमें मतवाला हो गया है। आप अर्जुन को आज्ञा दीजिये, वह इस दुष्टका दमन कर दे। यह सारे कौरव कुलका संहार करना चाहता है । यह जूआ सब प्रकारके झगडों की जड़ है । अभी जो दुर्योधन युधिष्ठिर को हराकर प्रसन्न हो रहा है, यह कुछ ही क्षणोंके बाद रोयेगा । मैं अपको पुन: चेताये देता हूँ कि अगर आपने जूए को नहीं रोका तो आपका सर्वनाश हो जायगा ।
दुर्योधन विदुर की सब बात सुन रहा था । उसने विदुरसे कहा – मैं तुम्हें खूब जानता है । तुम मेरे नमक से पलकर मेरी ही बुराई करते हो, मेरी ही निन्दा करते हो । तुम अपने स्वामी के साथ द्रोह करते हो, तुम्हें इसका पाप लगेगा। मेरे आश्रित होकर भी तुम शत्रुओं का काम बना रहे हो, यह तुम्हारी निर्लज्जता है । अपने से मित्रता रखनेवालों का विरोध करना मूर्खो का काम है । शत्रुपक्षसे मिले हुए आदमी को अपने यहां नहीं रखना चाहिये । इसलिये तुम्हारी जहाँ इच्छा हो चले जाओ । विदुरने कहा- दुर्योधन ! तुम अभी बच्चे हो । सुननेमें कठोर किंतु परिणाममें सुख देनेवाली बात सेे तुम्हें नाराज नहीं होना चाहिये । देखो, मूढ़ता मत करो । अपना हित अनहित समझो । ठकुरसुहाती करनेवाले बहुत से मिल जाएंगे, परंतु संसार में सच्चे हितैषी बहुत ही कम मिलते हैं । क्रोध बड़ा भारी शत्रु है ।
लोभ धधकती हुई आग है । मैं चाहता हूँ कि कौरवोंका यश बढे। वे शान्तिसे सुख से धर्मके मार्गपर चलें । मैं हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना करता हूँ, भगवान् तुम्हारा कल्याण करें । तुम पाण्डवो के साथ यह अन्याय मत करो, नहीं तो तुम्हारा नाश अब दूर नहीं है । दुर्योधन ने विदुरकी बात नहीं मानी, जूआ चलता रहा। युधिष्ठिर चारों भाइयों-सहित अपनेको हार गये । द्रोपदी को भी दावँपर लगाकर हार गये ।
दुर्योधन की हिम्मत बढ़ गयी थी । उसने विदुर से कहा- तुम जाकर द्रोपदी को सभामें ले आओ । वह अभागिनी है, आकर मेरे घरमें दासी की तरह रहे, झाडू लगावे । जब दुर्योधन ने विदुर को भला-बुरा कहा था, तब विदूर पर उसका असर नहीं पडा था । परंतु द्रोपदी के बारेमें ऐसी बात सुनकर उन्होंने यह बात कह डाली जो द्रोपदीके बार बार रोने गिड़गिड़ाने पर भी भीष्म और द्रोणके मुँह से नहीं निकली । उन्होंने दुर्योधनसे कहा – मूढ दुर्योधन तू किसके बारेमें ये बातें कह रहा है । किसी भी स्त्री का अपमान करना मनुष्यता के विरुद्ध है । फिर द्रोपदी तो यज्ञवेदी से निकली हुई साक्षात् देवी है । तू सांपो से छेड़खानी कर रहा है । अब तू शीघ्र ही यमपुर जायेगा। देख, द्रोपदी कभी तेरी दासी नहीं हो सकती । युधिष्ठिर को द्रोपदी के हारनेका कोई हक ही नहीं था । अपन ेको हार जानेके बाद द्रोपदीपर उनका क्या स्वत्व था कि उन्होंने उसको दावँपर लगाया। अपने मुँह से कभी किसीके लिये दुर्वचन नहीं निकालना चाहिये। द्रोपदी के प्रति दुर्वचनका प्रयोग करके तूने अपने पुण्य नष्ट कर दिये हैं, अब भी सँभल जा, नहीं तो अनर्थ हो जायगा । दुर्योधन ने विदुर की बात नहीं मानी । द्रोपदी लायी गयी और उसके बाद उसकी साडी उतार कर निर्वस्त्र करने का प्रयास किया गया परंतु भगवान् कृष्ण ने वस्त्रावतार धारण कर द्रौपदी की लाज बचाई,यह बात प्रसिद्ध ही है। विदुरने भरसक उस दुर्घटना को रोकनेकी चेष्टा की, परंतु वह होनेवाली थी, होकर ही रही !
जब पांचों पाण्डव कुन्ती और दौपदी के साथ बारह वर्षके वनवास और एक वर्षके अज्ञातवास के लिये जाने लगे, तब उन्होंने सभामे जाकर सबको प्रणाम किया और सबसे अनुमति ली । उस समय उनके कल्याण की कामना तो सब ने की, परंतु यह बात केवल विदुरके ही मनमें आथी कि कुन्ती बूढी हो गयी हैं, इन्हें वनमें नहीं जाना चाहिये । उन्होंने पाण्डवों से कहा – कुन्ती सर्वथा पूजनीय हैं । इनकी अवस्था वनमें जाने योग्य नहीं है । ये सदा सुखमे ही रही है । ये वनका दुख नहीं सह सकेंगी । आर्या कुन्ती मेरे घरमे अन्दर सत्कारके साथ रहें । तुमलोग मेरी यह बात भात लो । जाओ, भगवान् सर्वत्र तुम्हारा भला करे । युधिष्ठिरने कहा – निष्पाप ! आप हमारे गुरु हैं, आदरणीय चाचा हैं, इम सब आपके अनुगामी हैं, आपकी आज्ञा हमें स्वीकार है, माता कुन्ती यहीं रहेंगी । अब आप हमलोगो को कुछ उपदेश कीजिये ।
विदुरने कहा – तुमलोग सब तरहसे योग्य हो, तुम्हारे पुरोहित धौम्य ब्रह्मज्ञानी हैं और वे तुम्हारे साथ हैं । तुमलोग संतोषी हो, इसलिये फूट पड़नेकी संभावना नहीं । तुमलोगों ने मेरु, सावर्णी, परशुराम, कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास)और भगवान् शंकर से ज्ञान तथा धर्मकी शिक्षा प्राप्त की है । असितने तुम्हें उपदेश किया है और भृगुने दीक्षा दी है । देवर्षि नारद सर्वदा तुम्हारी देख रेख किया करते हैं । तुम लोगो में सब सदगुण निवास करतें हैं । तुम्हें आत्मसंपत्ति प्राप्त है । अधर्म के द्वारा ठगे जानेपर व्यथित होने की तो कोई बात ही नहीं है । जो वस्तु तुमसे ठग ली गयी है; वह तुम्हारे पास कई गुना होकर लौटेगी । जाओ, तुम्हारा कल्याण हो । माता कुन्ती विदुरजीके पास रह गयी तथा द्रोपदी और पुरोहित धौम्य के साथ पाण्डवो ने वन को प्रस्थान किया ।
धुतराष्ट्र के पूछने पर विदुरने उन्हें बतलाया कि युधिष्टिर अपनी आंखें बंद किये जा रहे हैं । इसका यह अर्थ है कि
युधिष्ठिर दुर्योधनादिपर बडा ही स्नेह रखते हैं । यदि इस समय वे आँखें खोलकर देख लें तो तुम्हारे बेटे भस्म हो सकते हैं । इसीसे वे आँखें बंद किये जा रहे हैं । भीमसेन अपने विशाल बाहुओ की ओर देखते जा रहे हैं । वे सोच रहे हैं कि बाहुबल में मेरे समान कौन है । वे मन ही मन युद्धमें घोर कर्म करनेका संकल्प कर रहे हैं । अर्जुन पैरो से बालू (धूल)उड़ते हुए जा रहे हैं, इसका अभिप्राय यह है कि युद्धके समय वे शत्रुओ पर इसी प्रकार बाण वर्षा करेंगे और शत्रुओ को धूल में मिला देंगे। नकुलने अपने शरीरपर मिट्टी पोत ली है कि मेरा शरीर बहुत सुंदर है, कहीं मुझे देखकर स्त्रिया मोहित न हो जाये । सहदेवने अपने मुंहमें मिट्टी लगा ली है कि कोई उन्हें पहचान न सके। वे वन जाने से कुछ लज्जित से हो रहे हैं ।द्रोपदी दु:शासनके पकड़े हुए बालो को खोलकर यह कहती जा रही है कि आजके चौदहवें वर्ष कौंरवकुल की स्त्रिया भी यहीं दुर्गति भोगेगी । धौम्य भयंकर याम्य – मंत्रो का उच्चारण करते हुए जा रहे हैं कि कौरवों के पुरोहित भी उनके मारे जानेपर इसी प्रकार का मन्त्रपाठ करेंगे ।
विदुर ने आगे कहा – महाराज ! सारी प्रजा विक्षुब्ध हो ठी है । सब लोग कौरवो को कोस रहे हैं, उनके अन्याय की निन्दा कर रहे हैं और पाण्डवो के साथ सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं । महाराज आज प्रकृति बडी ही क्षुब्ध है । आजके अपशकुनों को देखकर बडी आशंका हो रही है । संसार में न जाने क्या होनेवाला है । विदुर इस प्रकार कह ही रहे थे कि ब्राह्मी कान्ति धारण किये हुए देवर्षिश्रेष्ठ नारद जी उसी समय सभामें उतर आये और उन्होंने सबके सामने ऊँचे स्वरसे कहा – लोगो ! सुन लो। कान खेलकर सुन लो । आजके चौदहवें वर्ष दुर्योधनके अपराध से और भीमसेन तथा अर्जुनके बल से सम्पूर्ण कौरव-कुलका नाश हो जायगा । इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गये और सभी
सभासद् दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के सहित सन्न रह गये । एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर को बुलाकर पूछा – क्या करनेसे हमारा उपकार हो सकता है ? जो हो गया, सो हो गया । अब जो हमारा कर्तव्य है, उसे बताओ । प्रजा हमसे विरुद्ध हो रही है, उसका प्रेम किस प्रकार प्राप्त किया जाय ? विदुरने कहा – महाराज ! धर्म ही अर्थ, काम और मोक्ष तीनों की जड़ है । आपके पुत्रोंने बडा ही अन्याय किया है । उन्होंने धर्मात्मा युधिष्ठिरको छल से जीता है, इस कुकर्म का आप प्रायश्चित्त कर डालिये, पाण्डवो की सम्पत्ति उन्हें फिर दे दीजिये। शकुनि का तिरस्कार कीजिये । पाण्डवों को कोई जीत नहीं सकता। आप यदि कौरव और पाण्डव दोनों वंशोंका मंगल चाहते हैं तो दुर्योधन को बाध्य कीजिये कि वह पाण्डवो के साथ निष्कपट मेल कर ले नहीं तो उसे कैद कर लीजिये । दुर्योधन को कैद कर लेने से पाण्डव संतुष्ट हो जायंगे और वे फिर धर्म के अनुसार पृथ्वीका शासन करेंगे तथा शरणमें जानेपर दुर्योधन को छोड़ भी देंगे । दुशासन अपने पाप के लिये पश्चात्ताप करे और भरी सभा में द्रोपदी तथा भीमसेन से क्षमा मांगे । कर्ण अपने मनसे दुर्भावना निकाल दे और शकुनि यहां से निकाल दिया जाय । आप सांत्वना देकर युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कीजिये । बस, यही प्रजाप्रेम प्राप्त करनेका उपाय है । इसीसे आपको शान्ति प्राप्ति होगी और अपका मनोरथ सिद्ध होगा । विदुर की स्पष्ट वाणी सुनकर धृतराष्ट्र जल उठे । उन्होंने कहा – विदुर ! तुम पाण्डवो का पक्षपात करते हो । तुम मेरा भला करना नहीं चाहते । धर्मके अनुसार पाण्डव मेरे पुत्र हैं सही, किंतु दुर्योधन तो मेरे शरीर से पैदा हुआ है, भला मैं अपने सगे बेटे को किस तरह कैद कर सकता हूं? दूसरों के लिये शरीर त्याग का उपदेश करना समदर्शीका काम नहीं । तुम मुझे बुरी सालाह देकर स्पष्टरूप से मेरी हानि करना चाहते हो । अब तुम चाहे यहाँ रहो या मत रहो । मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं । इतना कहकर धृतराष्ट्र रनिवास में
चले गये और विदुरने यह सोचकर कि अब यह घराना चौपट होनेवाला है, पाण्डवोंके पास जानेके लिये फुर्तीले घोडोंके रथपर सवार होकर यात्रा शुरू कर दी ।
पाण्डवो ने खड़े होकर विदुरका स्वागत किया और उन्हें एक सुन्दर आसनपर बैठाकर यथोचित सम्मान किया । युधिष्टिर के पूछनेपर विदुरने धृतराष्ट्र की बात कही और यह भी बताया कि अब धृतराष्ट्र को मेरी आवश्यकता नहीं रही, इसलिये मैं यहाँ चला आया । उनका हृदय मोह ममता से कलुषित हो गया है । वे धर्मकी बात, हित की कात सुनना तक नहीं चाहते हैं । ऐसा मालूम होता है कि अब कौरवो का नाश निकट है । युधिष्ठिर ! इस आपत्ति से घबड़ाने की कोई कात नहीं है । जो पुरुष शत्रुओंके दिये हुए क्लेशों को धीरता के साथ सह लेता है और क्षमा का सहारा लेकर अपने अनुकूल समय की बाट देखता रहता है, उसे आगे चलकर अवश्य सुख प्राप्त होता है । जो सम्पत्तिके समय, भोगके समय अकेले ही सुख नहीं भोगता, अपने सहयोगीयो को भी समानरूप से हिस्सा देता है, उसे विपत्तिके समय भी, दुखके समय भी अकेले ही उनका भार नहीं उठाना पड़ता । उनमें भाग लेनेवाले भी मिल जाते हैं, सहायक पानेका यही सबसे अच्छा उपाय है । सहायक मिल जानेपर सब कुछ मिला हुआ ही समझना चाहिये। अपने को सबसे छोटा और नम्र बनाकर रखनेमें ही कल्याण है । राजाओं की इसीसे अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार विदुर पाण्डवो को उपदेश करते रहे ।
ऐसा देखा गया है कि स्वार्थी पुरुष भी नि:स्वार्थ व्यक्तिपर ही अधिक विश्वास करता है । शराबी को यदि अपनी स्त्री किसीके पास रखनी होती है तो वह शराबी का नहीं, शराब न पीनेवाले का ही विश्वास करता है । बेईमान भी अपनी धरोहर ईंमानदार के पास ही रखता है । धृतराष्ट्र भी विदुरपर सबसे
अधिक विस्वास रखते थे । इसका कारण था, उनके लड़के उन्हें धोखा दे सकते थे । परंतु विदुर से धोखे की कभी सम्भावना नहीं थी । विदुर के चले जानेपर वे पछताने लगे । उन्होंने सोचा कि विदुर की सहायतासे पाण्डवो की बडी उन्नति होगी । मेरे लड़कोंका बडा अनिष्ट होगा । सन्धि और विग्रह की नीति का जानकार कोई भी हमारे पक्षमें नहीं रह जायगा । वे सभाके द्वापर आते-आते अचेत हो गये । संजय आकर उन्हें सँभालने लगे । थोडी देरमें धृतराष्ट्र को चेतना हुई ।
धृतराष्ट्र ने संजय से कहा – संजय ! विदुर मूर्तिमान् धर्म हैं । वे मेरे प्यारे भाई हैं । उनके बिना मेरा कलेजा छटपटा रहा है । मेरी छाती फटी जा रही है । करुण स्वर से विलाप करते हुए धृत्तराष्ट्र ने फिर कहा – विदुर कहाँ चले गये ?उनकी अनिष्ट शंका से मैं बहुत ही व्याकुल हो रहा हूँ ।वे जीवित तो हैं न ? मैं बडा पापी हूँ । क्रोध के अधीन होकर मैंने अपने प्यारे भाई का त्याग कर दिया । उन्होंने सर्वदा मेरा उपकार किया है, किन्तु मैं इतना नीच हूँ कि मैंने उन्हें बिना किसी अपराधके ही निकाल दिया । संजय! तुम शीघ्र जाकर विदुर को ले आओ । नहीं तो मैं अपने प्राण दे दूँगा । जो आज्ञा है कहकर संजय ने उसी समय प्रस्थान कर दिया ।
संजय ने काम्यक वन में जाकर विदुर से घृतराष्ट्र की अवस्था का वर्णन किया और आग्रह किया कि आप शीघ्र चलकर उनके प्राणों की रक्षा कीजिये । विदुरके मनमें कोई दुर्भाव तो था ही नहीं । वे पाण्डवो से अनुमति लेकर शीघ्र ही वहाँसे चल पड़े । उनके आनेपर धुतराष्ट्र ने बडी प्रसन्नता प्रकट की और कहा – विदुर ! तुम्हारा हृदय शुद्ध है, यह मेरा सौभाग्य है कि तुम मेरे पास रहते हो । मैंने तुम्हारा अपराध किया है, तुम्हें बहुत कटु वचन कहे हैं, उन्हें भूल जाओं और मुझे क्षमा करो । धृतराष्ट्र ने विदुर को अपनी गोदीमें उठा लिया और सिर सूंघ कर बड़ा प्रेम
जताया । विदुरने कहा – राजन्! आप कैसी बात कहते हैं। मेरे नाते भी क्या आपका छाई अपराध होता है ? आप मेरे परम गुरु हैं । आपके लिये ही मै शीघ्र यहाँ आ गया हूँ। पाण्डव और कौरव दोनों ही मेरे लिये समान हैं तथापि पाण्डवो की अवस्था इस समय अच्छी नहीं है । इसलिये बार-बार मेरी दृष्टि उनपर पड़ जती है और पड़नी ही चाहिये। यदि आप उनके साथ प्रेमका भाव रख सके तो कितना अच्छा हो । धृतराष्ट्र प्रसन्न हो गये और विदुर हस्तिनापुर में रहने लगे ।
4. पाण्डवों का बारह वर्षका वनवास और एक वर्षका अज्ञातवास समाप्त हो चुका था । वे विराटनगर में प्रकट हो चुके थे और दोनों ओर से युद्ध की भीषण तैयारी हो रही थी । धृतराष्ट्र ने संजय को युधिधिरिके पास यह समझाने के लिये भेजा था कि युद्ध करना अधर्म है, वे किसी प्रकार युद्धसे विरत हो जायें । उस दिन संजय युधिष्टिर के पास से लौटकर धृतराष्ट्र के पास आया था और उसने युधिष्ठिर को निर्दोष बतलाते हुए यह कहा था कि अब युद्ध हुए बिना नहीं रह सकता । यदि उन्हें कुछ दिया नहीं जायगा तो वे युद्ध करनेके लिये मजबूर हैं और इसमें उनका कोई दोष नहीं । उन्होंने आपके लिये और सब लोगोंके लिये जो सन्देश कहे हैं उन्हें मैं कल सभामें सुनाऊँगा, क्योंकि आज मैं थक गया हूँ । धृतराष्ट्र की अनुमति लेकर संजय चला गया ।
संजय के चले जानेपर धृतराष्ट्र बड़ी चिन्तामें पड़ गये । उन्होंने द्वारपाल को भेजकर विदुरको बुलवाया । विदुर तुरंत धृतराष्ट्र के पास उपस्थित हुए और उन्होंने बडी नम्रता से कहा – महाराज ! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? मेरे योग्य सेवा बतलाइये । धृतराष्ट्र ने कहा – विदुर ! अभी संजय मुझे वहुत कुछ कह सुनाकर घर गया है । सुबह सभामे युधिष्ठिर के संदेश खुनायेगा । अभी मुझे मालूम नहीं कि युधिष्ठिरने क्या सन्देश भेजा है । उसी चिन्ता से मुझे नींद नहीं आ रही और मेरा शरीर जल रहा है । धर्म और अर्थका तुम्हरे जैसा जानकार और कोई नहीं है । तुम मेरे भले की बात कहो । मेरी इंद्रियां विकल हो रही हैं । मुझे चिन्ता सता रही है । कोई ऐसा उपाय करो कि मेरा चित्त शान्त हो ।
विदुर ने कहा – महाराज ! साधारण पुरुषों को नींद न आने के बहुत से कारण हैं । जिसके ऊपर बलबान् पुरुष आक्रमण करनेवाला हो, जिसका सर्वस्व छिन गया हो, जो कामी है, चोर है, उसे नींद नहीं आती । जो किसी की सम्पत्ति हड़पना चाहता है, उसे भी नींद नहीं आती । इनमें से कोई दोष आपमें तो नहीं आ गया है ? महाराज ! यदि ये दोष आपमें न हों तो आप सुखपूर्वक सो सकते हैं । धृतराष्ट्र ने कहा – विदुर ! तुम बड़े विमा, बुद्धिमान और सम्मान के पात्र हो । मैं तुम्हारी कल्याणकारी बातें सुनना चाहता है । तुम मुझे नीति की बातें सुनाओ ।
विदुर ने कहा – राजन्! आपने नीति-विरुद्ध आचरण किया है । युधिष्ठिर सर्वथा राज्य के योग्य हैं । उन्हें आपने निकाल दिया है और आपमें राजा होनेके लक्षण बिलकुल नहीं हैं फिर भी आप राजा बन बैठे हैं । आप राज्य का शासन क्या कर सकते हैं ? दुर्योधन, शकुनि, कर्ण और दुशासन के भरोसे शासनका कार्य छोड़कर आप कैंसे भलाई की आशा कर सकते हैं । आपमें और उनमें बुद्धिमानों के लक्षण नहीं हैं । जिसे आत्मज्ञान है, जो अपनी शक्तिके अनुसार काम करता है, जिममें विषयों से विरक्ति है, सहनशीलता है और जो श्रद्धाके साथ धर्मका अनुष्ठान करता है, जो सर्वदा लोक ऊपकारी काम करता है, लोकविरोधी काम कभी नहीं करता, भगवान् और परलोक पर जिसकी श्रद्धा है । जो क्रोध, हर्ष, अभिमान, उद्दण्डता आदिके द्वारा दबा नहीं दिया जाता, काम हो जानेके पहले जिसके विचारों को और लोग जान नहीं सकते । बड़े से बड़े विघ्न जिसके निश्चयको बदल नहीं सकते, जो व्यवहार में सर्वदा धर्मका पालन करता है । जो बहुत देंर तक सुनता है और थोडी ही देर में समझ जाता है । जो असंभव की इच्छा नहीं करता, नष्ट हुए का शोक नहीं करता, आपत्तिमें मोहित नहीं होता । जो निश्चय करके ही पराक्रम प्रकट करता है, अपने समय को व्यर्थ नहीं बिताता । जो कटुभाषी हितैषी का अनादर नहीं करता, सम्मान पाने पर फूलकर कुप्पा नहीं हो जाता और अपमान होनेपर दुखी नहीं होता, सबका रहस्य जानता है, वह बुद्धिमान कहलाने योग्य है ।
जिसका अध्ययन दृद्धिके अनुसार है और जिसकी बुद्धि विद्या विरुद्ध नहीं है । जो प्राचीन पुरुषोंद्वारा निश्चित मर्यादाका उलंघन नहीं करता, सर्वदा सनातन धर्मपर हृदय से आरूढ़ रहता है, वह बुद्धिमान् है । विदुरने आगे कहा – राजन्! यह तो मैंने पंडितो के लक्षण कहे, अब आप मूर्खो के लक्षण सुनें । जिसने शास्त्र और लोक की बातें नहीं सुनीं । जो अपने आपे का बडा घमण्ड रखता है। जो असमर्थ होनेपर भी मनोरथ के पुलाव पकाता रहता है, जो पाप से धन कमाना चाहता है, जो मित्रसे दगा करता है, शत्रुओ से मित्रता जोड़ने वाला है, अपने करनेयोग्य कामों को नौकर चाकरों से कराता है, सबपर संदेह करता है, काममें जल्दबाजी करता है और जल्दी के काममें देर लगा देता है, उसे मूर्ख कहना चाहिये ।
राजन्! पितरोंका श्राद्ध नहीं करता, देवताओं की पूजा नहीं करता, सज्जनोंको मित्र नहीं बनाता, बिना बुलाये ही किसीके भी यहाँ चला जाता है, बिना पूछे ही बहुत कुछ कह डालता है । विश्वास के योग्य पर अविश्वास करता है, अपना दोष दूसरे पर लगाता है । जो परस्त्रियो पर आंख उठाता है और जो कंजूसों की सेवा करता है, वह मूर्ख है । राजन्! मैं आपसे सत्य कहता हूं । यही प्राचीन काल की मर्यादा है । जो सम्पत्तिशाली होकर अकेले ही बढिया माल खाता है, बढिया बढिया कपडे पहनता है और दूसरो को नहीं देता, उससे बढकर निष्ठुर और नीच कोई नहीं है। आप स्थिर बुद्धिसे कार्य और अकार्य- इन दोनोंका निश्चय करके मित्र, शत्रु, उदासीन तीनों को साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारोंसे वशमें कीजिये । पांचों इंद्रियों को जीतकर सन्धि, मान, विग्रह आदि छहों को जानकर वेश्या, जूआ, शराब, शिकार, कठोर वचन, दण्डवत कठोरता और अन्याय से धनोपार्जन – सात बातों को छोड़ दीजिये । फिर आपके
लिये सुख ही सुख है । विष और शस्त्र से केवल एक की हत्या होती है, किन्तु कुविचारसे बहुतोंका नाश हो जाता है। किसी कामके बारेमें अकेले नहीं सोचना चलिये, अकेले ही राह नहीं चलना चाहिये और सोते हुए लोगो को छोड़कर अकेले ही नहीं उठना चाहिये ।
क्षमा मनुष्यका परम बल है । क्षमा अशक्तों के लिये गुण है समर्थो के लिये आभूषण है । जिसके हाथमे क्षमाका खड्ग है, दुर्जन उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। धास-फूस से खाली जगहपर गिरकर आग आप ही आप बुझ जाती है । धर्म ही परम कल्याण है । क्षमा ही परम शान्ति है । ज्ञान ही परम तृप्ति है और एक अहिंसा ही सम्पूर्ण सुखों को देनेवाली है । जो राजा होकर युद्धसे डरता है, ब्राह्मण होकर घर छोड़ने में भयभीत होता है, उसे भूमि निगल जाती है । बेकार गृहस्थ और रोजगारी भिखमं गे दोनों ही अपने धर्मसे च्युत हैं । समर्थको क्षमा और दरिद्र को दानशीलता यह दोनों मोक्ष की जननी हैं । जो धनी होकर दान न करे और जो गरीब होकर तपस्या न करे, उसे गलेमे पत्थर बाँधकर नदीमे डूब जाना चाहिये। धनके दो अपव्यय हैं – एक तो अपात्र को देना और दूसरे सुपात्र को न देना । योगी सन्यासी और युद्धमें सम्मुख मारा जानेवाला क्षत्रिय – दोनों ब्रह्मलोकमें जाते हैं ।
उपाय तीन प्रकार के होते हैं- उतम, मध्यम और अधम । पुरुष और कर्म भी तीन प्रकार के होते हैं-पराये धनका हरण करना, परस्त्री का सेवन करना और संबंधियो का त्याग करना – ये तीनों लोभ, काम और क्रोध से होते हैं, अतएव तीनों ही निन्दनीय होते हैं । वरदान मिलना, राज्य मिलना और पुत्र होना – तीनों एक से हैं परंतु इन तीनो से श्रेष्ठ है शत्रु को
आपत्ति से बचा लेना । जो अपना भक्त हो, अपनी सेवा करता हो और ” मैं तुम्हारा भक्त हूं ” इस प्रकार कहे उसका त्याग कभी नहीं करना चाहिये । सम्पन्न के घरपर चार प्रकार के लोगों को रहना चाहिये-अपनी बिरादरीका बूढा, दुखी, कुलीन, दरिद्र सखा और बिना पुत्र की बहिन ।चार बातें तुरंत फल देनेवाली हैं – देवताओं-का ध्यान मनोरथ पूर्ण कर देता है । बुद्धिमानी के प्रतापसे गूढ बात भी मालूम हो जाती है । विद्वान के विनयकी लोग पूजा करते हैं और पापके त्यागसे अन्त करणमे शान्ति आ जाती है । अग्निहोत्र, मौन, अध्ययन और यज्ञ यदि मानके लिये किये जाते हैं तो इनका फल विपरीत होता है ।
पिता, माता, अग्नि ,आत्मा और गुरु -इन पांचो की सेवा प्रतिदिन करनी चाहिये । जो देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक और अतिथि इन पाँचों की नित्य पूजा करता है, वह पूजनीय होता है । जहाँ-जहाँ तुम जाओगे, वहाँ वहाँ पाँच प्रकार के लोग तुम्हारे साथ जायेंगे- मित्र, शत्रु, मध्यस्थ, सेव्य और सेवक । मनुष्योंको पाँच इंद्रियां है, यदि एकमें भी कोई दोष है तो उसके रास्ते से ज्ञान बह जाता है । छ: दोषों को अवश्य छोड़ देना चाहिये-अधिक निद्रा, तन्द्रित रहना, भय, क्रोध, आलस्य और फिर कभी कर लूँगा यह भाव । इन छ: गुणों को कभी नहीं छोड़ना चाहिये – सत्य,दान, सावधानी, प्रेम, क्षमा और धैर्य । जिसके वशमें काम, क्रोध, शोक, मोह, मद और मान -यह छहों रहते हैं वह जितेन्द्रिय है । गौ, नौकरी, खेती, स्त्री, विद्या और शूद्र के साथ संगति – छहोंके ऊपर बराबर दृष्टि न रखी जाय तो ये नष्ट हो जाते हैं । नीरोगता, ऋणहीनता, स्वदेशमें रहना, सत्संग, अनुकूल जीविका, भयरहित स्थानमें रहना – ये छ: बातें संसारमें सुख मानी जाती हैं । जो दूसरे की उन्नति नहीं देख सकते, सन्तोष
नहीं करते, क्रोध करते हैं, किसीका विश्वास नहीं रखते और दूसरो के प्रारब्धपर जीते हैं तथा दूसरों से घृणा करते हैं, वे दुखी ही रहते हैं ।
स्त्री, जूआ, शिकार, मद्यपान, कठोर वाणी, भयंकर दण्ड और काम – इन सात दोषो को सर्वथा त्याग देना चाहिये । ब्राह्मणों से द्वेष, लडाई, उनका धन छीनना, उनको मारने की इच्छा, निन्दा, उनकी प्रसंशा को अस्वीकार करना, उनको भूल जाना और जब वे माँगने आवें तब उनमें अवगुण निकलना – ये आठो भावी नाशके सूचक हैं । यह शरीर एक घर है । इसमें नौ द्वार हैं, तीन खंभे हैं, पाँच साक्षी हैं और जीव निवास करता है । जो इनको पहचान लेता है, वह तत्त्व को जान लेता है । इस प्रकार के लोगो को धर्मका ज्ञान नहीं होता – जो शराब पीते हैं, विषयो के लिये व्याकुल रहते हैं, धातुओ से दोष से पागल हुए रहते हैं ,जो थके हुए हैं, क्रोध में भरे हुए हैं ,भूखे हैं, उतावले हैं, लोभी हैं, भीरु हैं और कामी हैं, इनकी संगति कभी नहीं करनी चाहिये । जो आपत्तिमें व्यथित नहीं होता, सावधानी के साथ उद्योग करता रहता है, समय आनेपर दुःख भी सह लेता है, उसके शत्रु नष्ट हो जाते हैं । जो बिना काम के विदेशमें नहीं जाता, यात्रियों से मेल नहीं करता, परस्त्रियो पर दृष्टि नहीं डालता, दम्भ, चोरी, चुगलखोरी और शराबखोरी नहीं करता, वह सर्वदा सुखी रहता है । जो बराबरीवालो से विवाह, मैत्री, व्यवहार और बातचीत करता है, गुणियो को आगे बैठाता है, वह नीति-से च्युत नहीं होता । जो परिमित भोजन करता है और अपनेसे पहले आश्रितों को भोजन करा देता है, थोडा सोता है तथा काम बहुत करता है, मांगने पर पर शत्रुओ को भी देता है, उसकी हानि कोई नहीं कर सकता । जो अपने दुष्कर्म पर किसीके न जानने पर भी अपने आप ही लज्जित होता है, उसके दुष्कर्म छूट जाते हैं, उसे शान्ति मिलती है
और वह अत्यन्त तेजस्वी हो जाता है ।
विदुर ने आगे कहा – राजन्! पाण्डव आपके ही बालक हैं । आपने ही उनका पालन पोषण किया है । आपकी ही गोदमें खेलकर वे बड़े हुए हैं । आपने ही उन्हें सिखाया पढाया है और वे आपकी आज्ञाका पालन भी करते हैं । उनका हक उन्हें दे दें । आपका हृदय शान्त हो जायगा। तीनों लोको में अपकी प्रशंसा होगी । सब आपका सम्मान करेंगे । विदुरने धृतराष्ट्र को धर्मकी दृष्टिसे, शासन की दृष्टि से और हर प्रकार से समझाते हुए कहा है आप पाण्डवों के साथ न्याय कीजिये । अपने पुत्रों का पक्षपात करना ठीक नहीं है । मैं आपको एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं। आप देखेंगे कि न्याय करने से हर तरहसे कल्याण ही होता है ।
पुराने जमाने में एक केशिनी नामकी कन्या थी । भक्तराज प्रह्लाद के पुत्र विरोचन ने उससे कहा कि तुम मुझे वरण कर लो । उसने पूछा विरोचन ! ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं अथवा दैत्य । विरोचनने कहा – दैत्य ही श्रेष्ठ हैं । केशिनीने कहा – कल प्रात:काल सुधन्वा आयेंगे, उन्हें देखकर मैं निश्चय करूंगी । दूसरे दिन सुधन्वा आये, विरोचन ने उन्हें बैठने के लिये अपने आसन की और इशारा किया, उन्होंने केवल स्पर्श कर लिया । बात ही बातमें दोनो में विवाद छिड़ गया कि ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं या दैत्य । प्राणों की बाजी लगी और निर्णायक चुने गये विरोचन के पिता प्रह्लाद। जब दोनों प्रह्लाद के पास पहुंचे और प्रह्लाद ने सुधन्वा से पूछा कि अनुचित न्याय करने वाले को क्या दण्ड मिलता है, तब सुधन्वा कहा – सौतवाली स्त्री को जो वेदना होती है, जुए में हारे हुए और बोझ से पीडित पुरुष को जो पीडा होती है, निकलने के लिए छटपटाते हुए कैदी और द्वार के बाहर पड़े हुए भूखे को जो दुख मिलता है, वही दुःख झूठे गवाह और अन्यायपूर्ण निर्णय
करनेवाले को मिलता है । स्वार्थवश झूठ बोलने वाले स्वयं तो नार्को में जाते ही हैं, उनकी पीढियां भी नरकगामिनी होती हैं । झूठ बोलने वालो का सर्वनाश हो जाता है ।
सुधन्वा की शास्त्र सम्मत बात सुनकर प्रह्लाद कहा- विशेचन ! सुधन्वा के पिता अंगिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वा की माता तुम्हारी मातासे श्रेष्ठ हैं और सुधन्वा तुमसे श्रेष्ठ हैं । इस विवादमें तुम सुधन्वा से हार गये । तुम्हारे प्राण सुधन्वा के हाथमें हैं । विरोचन से यों कहकर प्रह्लाद ने सुधन्वा से कहा – ब्रह्मन्! मैं चाहता हूँ कि आप मेरे पुत्रको प्राणदान करें । सुधन्वा ने कहा – दैत्यराज ! तुमने धर्मका पक्ष लेकर सत्य बात कही है । पुत्रका पक्ष लेकर झूठ नहीं कहा है, इससे प्रस्रन्न होकर मैं तुम्हें तुम्हारा पुत्र दान करता हूँ , मैंने विरोचन को छोड़ दिया । अब केशिनी के साथ विवाह भी यहीं करें ।
विदुरने कहा – महाराज ! आप भी प्रह्लाद की भाँति ही उचित न्याय की और भूमि के लालच से झूठ न बोलें । यदि आप पक्षपात करेंगे तो आपका सर्वनाश हो जायगा । विदुरने और भी बहुत प्रकार से समझाया । धृतराष्ट्र पूछते रहे और विदुर उनको उत्तर देते रहे । घृतराष्ट्र ने अन्तमें कहा – विदुर ! तुम मुझे सर्वदा यही उपदेश दिया करते हो और ठीक ही देते हो । मैं भी तो यही कहता हूँ और करना भी यही चाहता हूँ। पाण्डवो के बारे में धर्मसंगत निश्चय भी करता हूँ, परंतु दुर्योधन के सामने आने पर सभी बातें बदल जाती हैं । अब जो होनेवाला है सो होकर रहेगा । मुझे अपने उद्योग से कोई आशा नहीं है । यदि कुछ और उपदेश करना बाकी हो तो यह भी मुझे सुनाओ। तुम्हारी बातें बडी विचित्र हैं, उनसे मुझे तृप्ति नहीं होती है ।
विदुरने कहा – राजन्! इसके बाद ब्रह्मब्रिद्याका विषय है ।
मै शूद्र योनिमें पैदा हुआ हूँ, इससे वह बाते नहीं कहनी चाहिये। महर्षि सनत्सुजात ही उस सिद्धान्त को कह सकते हैं इसलिये आप उन्ही के मुखसे सुनिये । धृतराष्ट्र ने कहा – क्या मेरे ऐसे भाग्य हैं कि मैं इसी शरीर से उनके दर्शन कर सकूँ ? विदुरने सनत्सुजात का ध्यान किया और वे उसी समय वहाँ उपस्थित हो गये । विदुरने उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाकर उनको विधिपूर्वक पूजा की और प्रार्थना की कि धृतराष्ट्र के मनमें एक ऐसी शंका है, जिसका समाधान करने का मुझे अधिकार नहीं है । ये सम्पूर्ण दुखो से ,सम्पूर्ण द्वंदों से सर्वदा के लिये छुटकारा पा जाये ऐसा उपदेश कीजिये। धृतराष्ट्र ने भी महर्षि सनत्सुजात से विदुर की बातों का समर्थन करते हुए मृत्यु का रहस्य पूछा । सनत्सुजात ने विदुर की प्रार्थना से धृतराष्ट्र को सम्पूर्ण ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया और मृत्यु का रहस्य बतलाया । महाभारत उद्योगपर्व का वह अंश बडा ही महत्त्वपूर्ण है । अध्यात्म जिज्ञासुओंके लिये उसका स्वाध्याय बहुत ही उपयोगी है । बात करते करते वह रात बीत गयी और प्रात:काल होनेपर सब लोग नित्यकृत्य से निवृत्त होकर संजय केे द्वारा युधिष्ठिर का सन्देश सुनने के लिये सभामें गये ।