पूज्य श्री अंजना नंदन शरण , श्री शत्रुघ्न दास बाबा सरकार , श्रीसंप्रदायाचार्य श्री ब्रह्मचारी जी का कृपाप्रसाद , संतो के स्वयं के भाव एवं अवध के महान् संतो के प्रवचनों / लेखो पर आधारित । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे ।
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संत ब्राह्मण गौ माताओ की कृपा से कुछ पुराने संत महात्माओ के रामायण पर लिखे विचार पढ़ने का अवसर दास को मिला। उसमे कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण भाग जो दास ने पढ़ा वही आगे लिखने जा रहा हूं।
बाली ने श्री रामचंद्र जी पर आरोप लगाये थे की प्रभु ने उसे छिप कर अधर्म से मारा है। प्रायः बहुत से लोग बिना सोचे समझे भगवान् के इस चरित्र को दोषयुक्त दृष्टि से देखते है और कुछ तो कह देते है की प्रभु ने बाली का वध अधर्म से किया । निचे कुछ पूज्य संत महात्माओ के आशीर्वचन दिए गए है जिस से प्रभु की यह लीला संतो किं कृपा से हम मंदबुद्धियो को कुछ समझ सके।
बाली वध के कारण –
१ .श्रीरामजी सत्य-प्रतिज्ञ हैं । यह त्रैलोक्य जानता है कि श्रीराम दो वचन कभी नहीं कहते, जो वचन उनके मुखसे एक बर निकला, वह कदापि असत्य नहीं किया जा सकता। वे मित्र सुग्रीव का दु:ख सुनकर प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि – सुनु सुग्रीव मारिहौं एकहि बान। ध्यान देने की बात है की व्याध भय से नहीं छिपता। मुख्य कारण यह होता है कि कहीं शिकार उसे देखकर हाथसे जाता न रहे । यहॉ विटप ओट(वृक्ष की ओट) से इसलिये मारा कि यदि कहीं बाली हमको देखकर भाग गया अथवा छिप गया, अथवा शरणमें आ पडा तो प्रतिज्ञा भंग हो जायगी (एक ही बाणसे मारने की प्रतिज्ञा है) ।
सुग्रीव को स्त्री और राज्य केसे मिलेगा ?पुनः यदि सामने आकर खड़े होते तो सम्भव था कि बाली सेना आदी को सहायता के लिये लाता । यह आपत्ति आती कि मारना तो एक बाली को ही था, पर उसके साथ मारी जाती सारी सेना भी ।यदि सामने आके लड़ते तो सुग्रीव की वानर सेना के वानर भी मारे जाते अतः सुग्रीव को उजड़ी हुई नागरी मिलती। प्रभु भक्त को उजड़ी नागरी कैसे देते? स्मरण रहे कि यहाँ छिपने में कपट का लेश भी नहीं है, यहाँ युद्ध नहीं किया गया है वरन दंड दिया गया है। राजा यदि यथार्थ दंड न दे,तो राजा उस दोष का भागी होता है।
२ -बाली चाहता था कि मेरा वध भगवान् के हाथो से हो, वाल्मीकि रामायण (१८ । ५७ )में बाली प्रभु से कहता है – आपके द्वारा अपने वध की इच्छा से ही ताराद्वारा रोके जानेपर भी सुग्रीव से युद्ध करने के लिये मैं आया था । यही बात मानस के – ” जौ कदाचि मोहि मारिहिं तौ पुनि होउँ सनाथ “ से भी लक्षित होती है । भगवान् अन्तर्यामी हैं, उन्होंने उसकी हार्दिक अभिलाषा (जिसका बाली को छोड़कर और किसीको पता भी न था) इस प्रकार पूर्ण की ।
३ -यद्यपि भगवान् सब कुछ करने मे समर्थ हैं, उनकी इच्छा में कोई वर या शाप बाधक नहीं हो सकता, तथापि यह उनका मर्यादापुरुषोत्तम अवतार है । यद्यपि एक बात कही वर्णन नहीं मिलता परंतु कुछ सज्जनों का मत है कि बाली को देवताओ का वरदान था कि जो तेरे सम्मुख लड़ने के लिये आवेगा उसका आधा बल तुमको मिल जायगा। प्रभु सबकी मर्यादा रखते हैं इसीसे रावणवध के लिये नरशरीर धारण किया; नहीं तो जो कालका भी काल है क्या वह बिना अवतार लिये ही रावण को मार न सकता था ?
जिसके एक सीकास्त्र से देवराज इंद्र के पुत्र को त्रैलोक्य में शरण देनेवाला कोई न मिला, क्या वह सीता जी के उद्धार के लिये वानर कटक एकत्र करता ? सुग्रीव से मित्रता करता? नागपाश मे अपने को बंधवाता इत्यादि। प्रभु तो रावण को अवश्य साकेत वैकुण्ठ धाम में बैठे ही मार सकते थे, पर देवताओं की मर्यादा, उनकी प्रतिष्ठा जाती रहती । प्रभु यदि बाली को सामने से मारते तो उनके वर और शापका कोई महत्त्व नहीं रह जाता । इसीलिये तो श्रीरामदूत हनुमान जी ने भी ब्रह्मदेव का मान रखा और अपने को नागपाश से बंधवा लिया (सुन्दरकाण्ड देखे) ।
कुछ अधिक बुद्धिजीवी लोग एवं आजकल के युवा तर्क करते है की बाली को प्रभु सामने से कभी नहीं मार पाते क्योंकि प्रभु का आधा बल देवताओ के वरदान अनुसार बाली के पास आ जाता। ध्यान रखे प्रभु का बल अतुलित है अनंत है जिसे आप infinite कहते है और infinite का आधा नहीं होता है। प्रभु का समुद्र रुपी बल जीव रुपी घट में आधा भी नहीं समा सकता।
४ -शास्त्र अनुसार छोटा भाई, पुत्र, गुणवान् शिष्य ये पुत्र के समान हैं । कन्या, बहिन और छोटे भाईकी स्त्री के साथ जो कामका व्यवहार करता है उसका दण्ड वध है ।जो मूढ़बुद्धि इनमें रमण करता है, उसे पापी जानना चाहिये। वह सदा राजाद्वारा वधयोग्य है ।
यद्यपि ऐसा पापी वध योग्य है फिर भी प्रभु ने सोचा की बाली हमारे सुग्रीव का भाई है, बाली पत्नी तारा भी प्रभु की भक्ता है अतः श्रीराम जी ने बाली को सुधार का अवसर देना चाहा । प्रभुने बाली को पहली बार नहीं मारा । उसको बहुत मौका दिया कि वह संभल जाय, सुग्रीव से शत्रुभाव छोड़ दे और उससे मेल कर ले, पर वह नहीं मानता । दूसरी बार अपना फूलो का हार चिह्न के रूप में देकर सुग्रीव को प्रभु ने बाली से युद्ध करने भेजा ।अकारणकृपालु भगवान् ने बाली को होशियार किया कि सुग्रीव मेरे आश्रित हो चुका है; यह जानकर भी मम भुजबल आश्रित तोहें जानी उसने श्रीरामचन्द्रजी के पुरुषार्थ की अवहेलना की, उनका अत्यन्त अपमान किया, उनके मित्रके प्राण लेनेपर तुल गया तब उन्होंने मित्र को मृत्युपाश से बचाने के लिये उसे मारा ।
यदि इसमें अन्याय होता हो रामजी कदापि यह न कह सकते कि छिपकर मारने के विषय में न मुझे पश्चाताप है न किसी प्रकार का दु:ख ।ध्यान दे की अंत में बाली ने प्रभु का उत्तर सुनकर श्रीराम से कहा है-
न दोषं राघवे दध्यो धर्मेsधिगतनिश्चय: ।।
प्रत्युवाच ततो रामं प्रांजलिर्वानरेश्वर: ।
यत्त्वमात्थ नरश्रेष्ठ तत्तथैव न संशय: ।।
(वाल्मीकि रामायण ४४-४५ )
अर्थात् उत्तर सुनकर उसने धर्म का निश्चय जानकर राघव जी को दोष नहीं दिया और हाथ छोड़कर बोला कि आपने जो कहा यह ठीक है, इसमें संदेह नहीं । जब स्वयं बाली ही यों कह रहा है तब हमको आज़ श्री रामजी के चरित्र पर दोषारोपण करनेका क्या हक है ?
अब देखना चाहिये कि सरकार ने अपने संक्षिप्त उत्तर मे ऐसी कौन बात कही कि जिससे बाली का समाधान हो गया । उनके उत्तरों से स्पष्ट मालूम होता है कि उन्होंने अपराधका दण्ड दिया । युद्ध करना और दण्ड देना दो पृथक वस्तु हैं । युद्ध शत्रुसे किया जाता है । और दण्ड अपराधी को दिया जाता है । युद्धके नियम दण्ड देने में लागू नहीं हैं । अपराधी न्यायाधीश से नहीं कह सकता कि तुम मुझ बँधे हुए को फांसी की आज्ञा देकर अधर्म कर रहे हो । मेरे हाथमें तलवार दो, और स्वयं भी तलवार लेकर लड़ो , और मुझे मार सको तो धर्म है नहीं तो फांसी दिलवाना पाप है । न्यायाधीश कहेगा कि मैं लड़ने नहीं आया हूँ तुमने अपराध किया है, उसीका यह दण्ड है।
सरकार का यहीं कहना है कि तुम हमारे शत्रु नहीं हो । यदि तुमसे शत्रुता होती और मैं लड़ने आया होता, पर मैं तो दण्ड देने आया हूँ । तुम अपराधी हो । बन्धु के पत्नी को कुदृष्टि से देखनेवाला वध्य है, पर तुम्हारा अपराध तो और भी बढा-चढा है, तुम दण्डके योग्य हो, और वह दण्ड व्याधकी भाँती वध करना है । वधके दण्डमें तीव्रता लानेके लिये ही तुम्हारा वध व्याध की भाँति करना पड़ा । बस सरकार के उत्तर को ठीक तरह से बाली समझा अत: निरुत्तर हो गया ।
५- श्री रामचंद्र जी को सुग्रीव जब दुंदुभी नामक असुर की अस्तिनिचय और सात ताल वृक्षों को भगवान् श्रीराम जी को दिखाता है । वह कहता की जो भी इन अस्थिपंजर को उठाने में समर्थ होगा और जो एक बाण से इन वृक्षों को काट देगा , वही युद्ध में बाली का वध कर सकता है । इस से भी स्पष्ट है की श्रीराघव जी अपने बल से युद्ध में बाली का वध करने में समर्थ है । परंतु सरकार युद्ध करने आये ही नहीं है ,वे तो बाली के पाप का दंड देने आए है ।
६. बालकाण्ड के इस श्लोक देखा जाए तो भी कारण स्पष्ट होता है – ततः सुग्रीववचनाद्धात्वा वालीनमाहवे ।सुग्रीवमेव तंद्राज्ये राघवः प्रत्यपादयत् ।। – अर्थात श्रीरामने बाली को युद्ध में मारकर सुग्रीव को राज्य दिलाया था ।
७ -एक संत का मत है की बाली ने भगवान् से कहा था – मुझे आपने व्याध की भाँती क्यों मारा? यहाँ संत जी के अनुसार व्याध का मतलब छुप कर नहीं है यहाँ व्याध की भाँती मारना मतलब निर्दयता से मारना है। बाली ने कहा प्रभु अपने मुझे निर्दयता से क्यों मारा? तब प्रभु ने कहा था की तुमने अपने अनुज के पत्नी हा हरण कर लिया था, बुरी दृष्टी डाली तुम्हे ऐसा ही दंड मिलना चाहिए। उन संत जी ने ‘विटप ओट’ का अर्थ वृक्ष की आड़ नहीं माना है, ‘विटप ओट ‘ का अर्थ उन्होंने किया है वृक्ष का सहारा लेकर ।
८ – श्री हनुमान जी लंका में श्री सीता जी से और संजीवनी बूटी लाते समय श्री भारत जी से बाली का श्रीराम के हाथो युद्ध में मारे जाने का वर्णन करते है –वालीनं समरे हत्वा महाकायं महाबलम् (६। १२६। ३८)
९ – एतदस्यासमं वीर्यं मया राम प्रकाशितम् । कथं तं वालीनं हन्तुं समरे शक्ष्यसे नृप ।। ( वाल्मीकिरामायण किष्किन्धा काण्ड ११ । ६८) इसमें वालीनां हन्तुं समरे का अर्थ हुआ युद्ध में ।
पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी एवं अन्य संत महात्माओ की हम सब पर कृपा है की उन्होंने सरल भाषा में हम मंदबुद्धियो को रामायण जी की कथा को समझाया है। समस्त हरि हर भक्तो की जय।
महाभारत मे जो रामायण दिया है वह बाल्मीकिय रामायण व रामचरितमानश से बहुत कम मेल खाता है । यैसा क्यो ।
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बिश्वामित्र कर्म से ब्राह्मण तो हो गये पर जब भी ईतिहास दोहराया जाऐगा तब गाधि त्रिशंखू कुशिक को उनसे अलग नही किया जा सकता वह क्षत्रिय ही कहलाऐगे । अग्नीवेश का ईतिहास भी ये ही है देवापि व सांतनु ऋष्टीसेन के पूत्र का भी यही ईतिहास है ।
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पंडित जी को दास का दण्डवत् । कमेंट करने के लिए साधुवाद । श्री सीताराम ।
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to ravan bhi sita par kudristi dali thi to use vi raja ram chandra chhip kar mar dete ravan apradhi tha to yudha ki kya jarurat padi?
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सीता जी की प्रतिज्ञा थी कि सरकार उनको स्वयं लेने आये, राक्षसों की सेना का भी नाश करना था , रावण को श्राप था कि किसी स्त्री के इच्छा बिना उसको स्पर्श करें तो मस्तक फट जाएगा पर सीता जी का अपहरण करने पर नही फटा । रावण के नाश के लिए सीता जी अशोक वाटिका गयी, रावण की इच्छा थी कि युद्ध मे मैं राम के हाथों मारे जाऊ , विभीषण का सम्मान रखना था सो उनसे सलाह लेकर मारा, रावण ने युद्ध कर लिए ललकारा था कि वीरता की डींग मत हांको युद्ध करो , वानर भालुओ का युद्ध मे संग पाकर मरेंगे ये नाराद जी का श्राप पूरा करना था , रणभूमि में आने के बाद छुप कर वार नही कर सकते
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और दूसरी बार राम जी ने बाली को छुप कर मारा ही नही था तो रावण को क्यो मारेंगे? आधा बल पा जाने वाला वरदान की बात झूठी है, मान् भी ले वरदान वाली बात और अगर सामने से लड़ते बाली से लड़ते तो भी रामजी का बल तो असीम है, उसका आधा होगा कहा से । और कोई दिमाग लगाके बोल भी दे कि असीम का आधा तो असीम होगा, तब तो दो भगवान बन जाएंगे। ये संभव है नही ।
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Kya shiri ram ji ne shanti prastav rkha tha ya fir unhe marne se phle ram ji ke duvara ek bar smjaya gya tha kya bs yhi janna h kyo ki jha tk muje malum h shir ram bina dusra pahlu sune bina prtigya nhi le sakte na hi kisi ko samjaye bina ya fir uski galti ko bina btaye sja kse de muje asa lagata h shir ram ka ye wala pahlu dikhaya nhi gya h Ramayan me bhi or sb pahlu dikhaye gye
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