श्री रामभद्र जी भगवान्श्री राम के परमभक्त थे । चातुर्मास्य व्रत के लिये आप एक स्थानपर ठहरे । वहां आपके सदुपदेशों को सुनने के लिये बहुत भीड़ एकत्र होती । वर्षा ऋतु के बीत जानेपर आप वहां से चलने के लिये तैयार हो गये । तब भगवान् ने स्वप्न दिया कि बर्षा के खाद शरद् ऋतु में भी यहीं निवास करो और अपने उपदेशों से लोगो में भक्ति का प्रचार को । आपने स्वप्न में मिले आदेश का उल्लंघन कर दिया ।
उसे केवल अपने मनका विकार माना और प्रतिपदा को ही चल दिये । मार्ग में एक नदी मिली । आपने देखा कि पानी थोड़ा है, अत: पैदल ही उसे पार करने के लिये उसमें घुसे । बीच धार मे पहुंचते ही जल की बाढ आ गयी । तेज गहरी धार मे श्री रामभद्रजी बहने और डूबने लगे । तब आपको भगवान् श्रीराम की याद आयी, अपनी भूलपर पछताने लगे । शरीर का अन्तिम समय समझकर राम नामका स्मरण करने लगे ।
तब श्री राम ने झट हाथ पकड़ लिया और बडी मधुर वाणी से बोले- तुमने मेरी आज्ञा को छोडा, अब मैं तुमको नदी के जलमें छोड़ रहा हूं । श्री रामभद्र जी ने कहा- प्रभो ! मैं अज्ञानी जीव, आपका शिशु अनुचित कर सकता हूं पर आप अपने स्वभाव को नहीं छोड़ सकते हैं । ऐसे दीनवचन सुनकर प्रभु ने इन्हें नदी सेे निकालकर तटपर खड़ा कर दिया और भगवान् फिर नदी में कूद पड़े ।
भगवत्स्पर्श और दर्शन से कृतार्थ हुए श्री रामभद्र जी से नहीं रहा गया, ये भी नदी में कूद पड़े । हंसकर प्रभुने इन्हें फिर निकाला और अपने दर्शनों से इनके मनोरथ को पूर्ण किया । प्रेममग्न होकर आप पुन: उसी स्थानपर आ गये । सुनकर लोगों को भीड़ उमड़ पडी । आपने स्वप्नादेश और भगवत्कृपा का वर्णन कर के सभी के मन में भक्तिभाव भर दिया ।