भक्त श्री सीहाजी बड़े ही नामनिष्ठ सन्त थे और सदा नाम संकीर्तन करते रहते थे । आपका संकीर्तन इतना रसमय होता था कि स्वयं भगवत भी विभिन्न वेश बनाकर उसमें आनन्द लेने पहुंच जाया करते थे । आप स्वयं तो कीर्तन करते ही थे, गाँव के बालकों को भी बुलाकर कीर्तन कराते थे । बलको को कीर्तन के अन्त में आप प्रसाद दिया करते थे, अत: वे भी खुशी खुशी पर्याप्त संख्या में आ जाया करते थे । एक बार ऐसा संयोग बना कि तीन दिन तक आपके पास बांटने के लिये प्रसाद ही न रहा ।
इससे अपको बडी चिन्ता हुई, साथ ही दुख भी हुआ । आपको इस प्रकार चिन्तित देख चौथे दिन भगवान् स्वयं बालक बनकर आये और सबको उनकी इच्छा के अनुसार इच्छाभर लड्डू वितरित किये और फिर रात्रि में आपसे स्वप्न में कहा कि अब आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, प्रसाद न रहनेपर मैं स्वयं वेश बदलकर प्रसाद बांटा करूँगा, आप बस कीर्तन कराइये । अब भगवान प्रतिदिन वेश बदलकर आपके कीर्तन में सम्मिलित होने लगे ।
एक दिन वे एक सेठ के पुत्र का रूप धारण करके आये और कीर्तन में सम्मिलित हो गये । संयोग से वह सेठ भी उस दिन कीर्तन मे आ गया, जिसके पुत्रका रूप धारणकर भगवान् आये थे । सेठने अपने पुत्र के रूप में भगवान को देखा तो चकित रह गये; क्योंकि वे तो अपने पुत्र को घरपर छोड़कर आये थे, वे जल्दी से अपने घर गये तो वहाँ पुत्र को बैठे देखा। सेठजी ने सोचा मेरी आँखों को धोखा हुआ होगा और वे फिर से कीर्तन मे आ गये, परंतु यहाँ आनेपर फिर उन्हें अपने पुत्र के रूप मे भगवान् दिखायी दिये । सेठजी चकिता अब वे एक बार घर जाते और फिर वापस कीर्तन में आते और दोनों जगह अपने पुत्रक्रो देखते ।
अन्त मे हारकर उन्होंने यह बात श्री सीहाजी से कही । इसपर आपने कहा-‘ सेठजी ! आप घर जाकर अपने पुत्र को यही लेते आइये । जब सेठजी घर से अपने पुत्र को लेकर आये तो भगवान् अन्तर्धान हो गये । यह देखकर आप समझ गये कि सेठ के पुत्र के रूप मे स्वयं श्री भगवान् ही पधारे थे । इस प्रकार आपका संकीर्तन अत्यन्त दिव्य हुआ करता था ।