यह चरित्र पूज्य श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी की चैतन्य चरितावली ,त्रिदंडी पूज्य श्री नारायण गोस्वामी महाराज द्वारा लिखी पुस्तके और श्री चैतन्य चरितामृत के आधार पर दिया गया है । कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे ।www.bhaktamal.com ®
श्रीमन् महाप्रभु का संन्यास तथा नीलाचल आगमन
श्रीगौरसुन्दर ने २४ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्यागकर संन्यास ग्रहण किया और श्रीकृष्णचैतन्य नाम से परिचित होकर श्री जगन्नाथपुरी (नीलाचल) आ गये । श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य के कहनेपर राजा प्रतापरूद्र ने श्रीचैतन्य महाप्रभु के रहने की व्यवस्था अपने राजपुरोहित श्रीकाशी मिश्र के भवन मे की थी ।
एकबार श्री अद्वैताचार्य ,श्रीशिवानन्द सेन, श्रीवासुदेव, श्रीमुरारि गुप्त तथा अन्य लगभग दो सौ भक्तोंके साथ श्री हरिदास जी भी श्रीमन् महाप्रभु के दर्शन के लिए श्री जगन्नाथ पुरी आये । श्रीगोपीनाथ आचार्य ने अट्टालिकासे श्रीसार्वभौंम भट्टाचार्य और महाराज प्रतापरूद्र एक एक करके सभी भक्तोंका परिचय बताया। इस प्रकार भक्तोंका परिचय बताते बताते श्री हरिदास जी की ओर संकेत करते हुए कहा-उन्हे देखो ! वे जगत को पवित्र करनेवाले श्री हरिदास ठाकुर है ।
सभी भक्त श्रीमन् महाप्रभु के दर्शन के लिए श्रीकाशी मिश्र के भवन की ओर चल पडे, किन्तु मार्ग में ही उन सबको श्रीमन् महाप्रभु की भेंट हो गयी । सभी भक्तोंसे मिलकर श्रीमन महाप्रभु को बहूत उल्लास हुआ । श्रीमन् महाप्रभुने सभी से कुशल क्षेम पूछा तथा श्री हरिदास जी को न देखकर महाप्रभु ने पूछा -हरिदास कहाँ है?
श्री हरिदास ठाकुर तो वहाँ तक भी नहीं आये, जहाँ प्रभु मार्ग में वैष्णवों से मिले थे, बल्कि दूर से ही प्रभु का दर्शन करके वे उसी राजपथ के एक किनारे पर दण्डवत होकर पडे रह गये थे। अब प्रभुके पूछनेपर सभी भक्त लोग दौडकर हरिदास जी को बुलाने के लिए वही पहुंच गये तथा उन्होंने कहा- हरिदास ,महाप्रभु तुमसे मिलना चाहते हैं, चलो जल्दी से उनके पास चलो।
श्री हरिदास जी ने कहा – मैं नीच जातिका होऩेके कारण अस्पृश्य हूँ। श्रीजगन्नाथ मन्दिर के निक्ट राजमार्गपर जानेका मेरा अधिकार नहीं है, क्योकि वहाँ राजपथपर श्रीजगन्नाथ देव के सेवकों का आना जाना रहता है । इसलिए एकान्त मे किसी एक बगीचे में यदि मुझे थोडा सा सथान मिल जाये तो मै वहींपर पडा रहकर अपना समय व्यतीत कर लूँगा । मेरी ऐसी इच्छा है कि मैं किसी ऐसे स्थानपर पडा रहूँ जिससे श्रीजगन्नथ के पुजारी सेवक मुझ अस्पृश्य से छु न जाये ।
श्री हरिदास जी के यह वचन भक्तोंने श्रीमन् महाप्रभु को जाकर बतलाये। श्रीमन महाप्रभु श्री हरिदास जी के विचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उसी समय श्रीकाशी मिश्र दो व्यक्तियो के साथ वहां आये तथा उन्होने श्रीमन् महाप्रभु के चरणों की वन्दना की । श्रीकाशी मिश्र ने महाप्रभुके चरणों में निवेदन किया -प्रभो ! यदि आपकी आज्ञा हो तो इन वैष्णावो के लिए सब प्रबन्ध किये जायें?
श्रीमन् महाप्रभुने कहा – गोपीनाथ आपके साथ जाकर सभोको रहने का यथायोग्य स्थान दे देगा। हे काशी मिश्र! मेरे इस स्थान के निकट ही जो बगीचा है, उसमे एक परम एकान्त घर है । वह घर मुझे चाहिये जिससे कि मैं वहाँ एकान्त में बैठकर श्रीकृष्ण स्मरण का सकूँ।
श्री काशी मिश्र ने कहा-प्रभो ! सबकुछ आपका है, फिर आप मांगते क्यो हैं? आपकी जो इच्छा हो, वही स्थान आप लीजिये I सभी वैष्णवगण श्रीमन् महाप्रभु को नमस्कार करके अपने स्थानपर चले गये और श्रीगोपीनाथ आचार्य ने सबको यथायोग्य स्थान दे दिया ।
तदनन्तर महाप्रभु हरिदास जी से मिलने आये। श्री हरिदास जी उस समय प्रेमपूर्वक नाम संकीर्तन कर रहे थे। श्रीमन् महाप्रभु को आते हुए देखकर श्री हरिदास जी ने आगे बढकर महाप्रभुके चाणो में गिरकर दण्डवतप्रणाम किया तथा महाप्रभु ने उन्हे उठाकर आलिंगन किया । दोनों प्रेमावेश मे क्रंदन करने लगे । हरिदास जी ने कहा प्रभु !आप मुझें स्पर्श मत कीजिये । मैं नीच जातिका अस्पृश्य तथा बहुत ही अधम हूँ। श्रीमन् महाप्रभु ने कहा -हिरिदास ! मैं स्वयं पवित्र होनेके लिए तुम्हारा स्पर्श कर रहा हूं । तुम में जो पवित्र धर्म है, वह मुझमें नहीं है।
तुम क्षण-क्षण में समस्त तीर्थो में स्नान करते हो और क्षण-क्षण में तुम यज्ञ, तप तथा दान करते हो। तुम निरन्तर शास्त्रो का अध्ययन कर रहे हो तथा तुम ब्राह्मणों तथा सन्यासियों की अपेक्षा परम पवित्र हो। श्री चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्र के वचन कहते हुए कहा – जिनकी जिह्वा के अग्रभागपर सदैव भगवान् का नाम वर्त्तमान रहता है, वह व्यक्ति श्वपच होते हुए भी पूजनीय है । जो आपके नामका संकीर्तन करते रहते हैं, वे ही सदाचारी हैं, उन्होंनै सब प्रकार की तपस्याएँ कर ली है, सब प्रकार के यज्ञ कर लिये हैं, समस्त तीर्थों में स्नान कर लिया है तथा उन्होंने समस्त शास्त्रो और उनके अंगो का अध्ययन का लिया है ।
इतना कहकर महाप्रभु हरिदास जी को बगीचे में ले गये तथा उम्हें वहाँ एकान्त मे रहनेके लिए घर दे दिया । उन्होंने कहा -हरिदास तुम इस स्थानपर रहकर भजन करो । मैं यहीं आकर प्रतिदिन तुमसे मिलूंगा ।श्रीजगन्नाथ मन्दिर के चक्र को देखकर प्रणाम करना । तुम्हारें लिए प्रसाद यहीपर आ जायेगा ।
श्रीनित्यानन्द प्रभु, श्रीजगदानन्द पंडित, श्रीदामोदर तथा मुकुंद -सभीने श्री हरिदास जी सेे मिलकर बहुत आनन्द अनुभव किया। समुद्र स्नान करने के बाद महाप्रभु अपने स्थान पर लौट आये । सभी भक्त महाप्रभुके निवास स्थानपर प्रसाद पाने के लिए एकत्रित हुए । महाप्रभुने अपने हाथो से सभी को प्रसाद परोसा किन्तु महाप्रभु के नहीं बैठने तक कोई भी प्रसाद नहीं पायेगा, इसलिए श्रीस्वरूप दामोदर ने प्रभु से निवेदन किया -सभी भक्त आपकी अपेक्षा कर रहे है । अत: आप और श्रीनित्यानन्द प्रभु दोनों प्रसाद पाने बैठिये और मैं सभी को परिवेेशन का दूंगा ।
तब महाप्रभु ने कुछ प्रसाद अन्न श्रीगोविन्द के हाथमे देकर यत्नपूर्वक उसे श्रीहरिदास जी के पास भिजवाया। श्री हरिदास जी के पास प्रसाद भेजन के उपरांत ही महाप्रभु सब संन्यासियों को बैठाकर स्वयं भी प्रसाद सवन के लिए बैठ गये ।
अब श्री हरिदास जी महाप्रभु द्वारा प्रदत्त उसी कुटी में रहकर निरन्तर भावविभोर होकर नित्यप्रति तीन लाख हरिनाम करने लगे। महाप्रभु नित्यप्रति प्रात:काल श्री जगन्नाथ देव की आरती के दर्शन करके श्री हरिदास जी को दर्शन देनेके लिए स्वयं उनकी कुटी मे जाते थे ।
ऐसा सुना जाता है कि एक बार श्रीचैतन्य महाप्रभु को भगवान श्री जगन्नाथ के पुजारियों ने प्रसाद में श्री जगन्नाथ देव की प्रसादी बकुल की एक दातुन दी थी । महाप्रभु जब श्री हरिदास जी को दर्शन देनेके लिए उनकी कुटियामें गये, तो उन्होने देखा की हरिदास धुप में ही नाथे बैठे भजन में मग्न हो जाये है । महाप्रभु ने उस दातुन को उनके आँगन में रोपण का दिया। देखते ही देखते उसने एक बहुत बडे वृक्ष का रूप धारण कर लिया। वह वृक्ष सिद्धबकुल के नाम से प्रसिद्ध हो गया । आज भी श्री हरिदास जी की भजनस्थली को लोग सिद्धबकुल के नामसे ही जानते है।
श्री हरिदास ठाकुर तथा श्री रूप गोस्वामी
श्री रूप गोस्वामी जब वृंदावन से चलकर नीलाचल पहुंचे, तब सबसे पहले वे श्री हरिदास जी की भजन स्थली पर ही उपस्थित हुए। श्रीहरिदास जी ने श्रीरूप गोस्वामी पर कृपा की तथा उन्हें बताया कि तुम्हारें आने के विषय में महाप्रभु ने मुझे पहले ही बता दिया था । जब श्रीमन् महाप्रभु श्री हरिदास से मिलनेके लिए आये, त श्री हरिदास जी ने महाप्रभु से कहा- प्रभो ! रूप आपको दण्डवत् कर रहा है ।श्री हरिदास जी से मिलने के उपरान्त श्रीमन् महाप्रभुने श्रीरूप गोस्वामी को आलिंगन किया ।
महाप्रभु ,हरिदास जी तथा श्रीरूपको लेकर एक स्थानपर बैठ गये तथा उन्होंने श्रीरूप से कुशल वार्ता जिज्ञासा की । फिर श्रीरूप गोस्वामी को हरिदास जी के साथ उनके वासस्थानपर रहने की आज्ञा देकर श्रीमन महाप्रभु अपने निवास स्थानपर चले गये । प्रतिदिन आकर महाप्रभु उनसे
मिलते थे तथा उन्हें श्रीजगन्नाथ मंदिर से जो प्रसाद मिलता था, वो इन दोनो को देते थे ।
श्री हरिदास जी अपने आपको म्लेच्छ मानकर मंदिर की मर्यादा के भंग की आशंका से मन्दिर नहीं जाते थे। श्री सनातन गोस्वामी तथा श्री रूप गोस्वामी ने भी श्रेष्ठ ब्राह्मणकुल में आविर्भूत होनेपर भी म्लेच्छ राजा के पास नौकरी की थी, इसलिए वे भी अपने आपको म्लेच्छ तुल्य मानकर श्री हरिदास जी के साथ एक ही स्थानपर रहते थे तथा श्रीजगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करते थे। इसलिए महाप्रभु भगवान श्री जगन्नाथ के उपलभोग दर्शन करने के उपरान्त इन तीनो को दर्शन देकर फिर अपने स्थानपर जाते थे।
यद्यपि ये सब मंदिर में प्रवेश नही करते थे, तथापि गुण्डिचा मंदिर मार्जन तथा रथ यात्राके समय श्रीमनन् महाप्रभु के भक्तोंके साथ नृत्य कीर्तन करते थे तथा भगवान श्रीजगन्नाथ देवके दर्शन करते थे ।
रथ यात्रा के एक दिन पहले श्रीमन महाप्रभु ने सब भक्तोंको लेकर गुंडिचा मंदिर का मार्जन किया तथा उसके उपरान्त आइ – टोटा नामक बगीचे में जाकर फल, कंदमूल आदिका भोजन किया । श्री हरिदास जी तथा श्री रूप गोंस्वामी भी उनके साथ वहांपर उपस्थित थे तथा वे भक्तों को प्रसाद पाते पाते बीच बीच मे हरि हरि बोलते देखकर बहुत उल्लसित हो रहे थे।
महाप्रभु तथा सभी भक्तोंके द्वारा प्रसाद सेवा का लेने के पश्चात श्रीगोविन्द प्रभु के द्वारा श्रीमन महाप्रभु के उच्छिष्ट प्रसाद को पाकर श्री हरिदास तथा श्रीरूप गोस्वम्मी प्रेम में मत्त होकर नृत्य करने लगे।
चातुर्मास्य के बाद गौडदेशसे आये सभी वैष्णव तो लौट गये, किन्तु श्री रूप गोस्वामी तो हरिदास जी के साथ ही रहते रहे। एकदिन महाप्रभु जब उन दोनो से मिलने आये तो उन्होने देखा कि श्री रूप गोस्वामी कुछ लिख़ रहे है । महाप्रभु को देखकर श्री हरिदास तथा श्री रूप गोस्वामी ने उठकर दण्डवत प्रणाम किया । दोनो को आलिंगन करने के बाद महाप्रभु आसनपर बैठ गये ।
महाप्रभु ने पूछा- रूप !कौन सा ग्रन्थ लिख रहे हो? इतना कहकर उन्होंने एक पन्ना अपने हाथमे ले लिया और श्रीरूप के द्वारा लिखे गये अक्षरोंको देखा, श्रीमन् महाप्रभु बहुत सन्तुष्ट हुए तथा उन अक्षरो की प्रशंसा करने लगे । उस पन्नेपर लिखे एक श्लोक को देखकर जब महाप्रभुने उसे पढ़ा तो प्रेमाविष्ट हो गए । उस श्लोक का अर्थ था –
” कृष्ण ” ये दो वर्ण न जाने कितने अमृत को अपनेमे समेटकर उत्पन्न हुए हैं । देखो ! जब (नटीके समान) ये वर्ण मुख में नृत्य करते हैं, तब बहुत से मुख प्राप्त हो ऐसी इच्छा हो जाती है , जब कर्ण कुहरो में प्रवेश करते हैं, तब करोडों कर्ण प्राप्त हो जाए ऐसी इच्छा होती है । जब चित्तरूपी प्रांगण में उदित होते हैं, तब समस्त इंद्रियों की क्रियापर ही विजय प्राप्त का लेते है ।
उपरोक्त श्लोक को सुनते ही श्री हरिदास जी आनन्द में विभोर होकर नाचने लगे तथा शलोक के अर्थ की प्रशंसा करने लगे । श्री हरिदास जी ने कहा – रूप ! मैने श्रीकृष्ण नाम की महिमा को शास्त्रो के द्वारा तथा महापुरुषों द्वारा बहुत सुना है, किन्तु इस प्रकार की नामकी महिमाको तो मैने कही भी नहीं सुना है ।तब महाप्रभु ने दोनो को आलिंगन किया तथा मध्याह्न (स्नान, दोपहर की प्रसाद सेवा आदि) करने के लिए समुद्र की ओर गमन किया ।
अन्य किसी दिन बहुत से भक्तोंके साथ आकर महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी के द्वारा लिखे गये बहूत से श्लोको को श्रवण किया तथा सभी भक्तों सहित महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी की बहुत प्रशंसा की। जब महाप्रभु अपने भक्तों को लेकर लौट गये, तब श्री हरिदास जी ने श्री रूप गोस्वामी को आलिंगन किया और कहा -रूप ! तुम्हारे भाग्यकी सीमा नहीं है । तुमने जिन सब श्रेष्ठ विचारोंका वर्णन किया है, उसको महिमा कौन जानता है?
श्री रूप गोस्वामी ने कहा -मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। श्रीमन् महाप्रभु मुझसे जो कहलवाते हैं, मैं वही कहता हूँ । इस प्रकार श्री रूप गोस्वामी तथा श्री हरिदास ठाकुर श्री कृष्णकथा के रस में सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करते थे ।
श्री हरिदास ठाकुर तथा श्री सनातन गोस्वामी
एकबार श्री सनातन गोस्वामी मथुरा मण्डल से अकेले झारिखण्ड के वनपथ से पुरुषोत्तम धाम (जगन्नाथ पुरी) आये। मार्ग में जलके दोष तथा उपवास के कारण उनकी देह में चर्म रोग हो गया। चर्म रोग की यातना तथा अपने आपको श्रीमन् महाप्रभु की सेवा में अयोग्य मानकर उन्होने मन ही मन विचार किया कि श्री जगन्नाथ पुरी पहुँचकर रथ यात्रा के समय श्रीजगन्नाथ देव के रथके पहियेके नीचे अपने शरीर का परित्याग कर दूंगा ।
श्री जगन्नाथ पुरी आते आते सबसे पहले उन्हें श्रीहरीदास जी के दर्शन हुए । श्री हरिदास जी को देखकर श्री सनातन गोस्वामी ने उनके चरणो की वन्दना को तथा श्री हरिदास जी ने भी उनका परिचय जानकर उन्हें आलिंगन प्रदान किया ।
श्री हरिदास जी ने जब देखा कि श्री सनातन गोस्वामी महाप्रभु के दर्शनों के लिए उत्कण्ठित हो रहे हैं, तब
हरिदास जी ने कहा – प्रभु अभी आने ही वाले है । थोडी ही देर में श्रीमन् महाप्रभु अपने भक्तोंके साथ श्री हरिदास जी से मिलने के लिए उनकी भजनस्थलीपर आ पहुंचे। महाप्रभुको देखते ही श्री हरिदास जी तथा श्री सनातन गोस्वामी ने उन्हें साष्टांग् दण्डवत प्रणाम किया। श् महाप्रभुने हरिदास जी को उठाकर उनका आलिंगन किया । श्री हरिदास जी ने कहा – प्रभु ! सनातन आपको प्रणाम कर रहा है । श्री सनातन गोस्वामी को वहाँ देखकर महाप्रभु के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
श्री सनातन गोस्वामी के बार बार मना करनेपर भी श्रीमन् महाप्रभु ने उनका भी आलिंगन किया । श्रीमन् महाप्रभु जब अपने भक्तों को लेकर चबूतरेपर बैठे तब श्री हरिदास जी तथा श्री सनातन गोस्वामी चबूतरेके नीचे बैठ गये ।
उस समय महाप्रभु तथा सनातन गोस्वामी में अनेकानेक कथोपकथन हूए। महाप्रभु ने श्री सनातन गोस्वामी को आज्ञा देते हुए कहा – बहुत अच्छा हुआ, जो तुम यहाँ आये । तुम इसी घर में हरिदास जी के साथ रहो । श्री कृष्णभक्ति रस के आस्वादन में तुम दोनों परम प्रधान (सर्वश्रेष्ठ) हो, यही दोनो साथ साथ रहकर श्रीकृष्ण रस का आस्वादन करो तथा श्रीकृष्णमाय कीर्तन करो ।
श्री सनातन गोस्वामी के मन में बार बार अपने शरीर को महाप्रभु की सेवा के अयोग्य जानकार भगवान् के रथ के निचे प्राण त्यागने का विचार आता । एक दिन नित्य की तरह जब महाप्रभु हरिदास की भजनस्थली पर आये तब महाप्रभुने श्री सनातन गोस्वामी से कहा – देह त्याग आदि तमोधर्म है, देह त्यागके द्वारा कृष्णप्रेम प्राप्त नहीं किया जा सकता अतएव तुम अपनी इस तमोबुद्धिका परित्याग करके सदैव श्रवण तथा कीर्तन करो । शीघ्र ही तुम्हें कृष्णप्रेमधन की प्राप्ति होगी ।
महाप्रभु के वचन सूनकर श्री सनातन गोस्वामी को बहुत आश्चर्य हुआ । तब श्री सनातन गोस्वामी ने मन ही मन विचार किया- श्रीमन महाप्रभु को मेरे शरीर त्यागने का विचार अच्छा नहीं लगा, इसलिए ही सर्वज्ञ महाप्रभु मुझे देह त्यागने के लिए निषेध कर रहे हैं । अत्त: श्री सनातन गोस्वामी ने महाप्रभु से पूछा- मुझे जीवित रखकर आपको क्या लाभ होगा ?
श्रीमन् महाप्रभुने उनसे कहा – तुमने मुझें आत्म समर्पण किया है अतएव अब तुम्हारी देह मेरा धन है। तुम मेरी वस्तुको नष्ट क्यो करना चाहते हो? क्या तुम धर्म तथा अधर्म का विचार करने में असमर्थ हो? तुम्हारा शरीर मेरा प्रधान साधन है, तुम्हारे इस शरीर के द्वारा मैं बहुत से कार्य सम्पन्न करवाऊंगा । मैं तुम्हारे माध्यमसे ही भक्त भक्ति तथा कृष्णप्रेम के तत्त्व, वैष्णवो के कृत्य तथा वैष्णव – आचार, लुप्ततीर्थोंका उद्धार तथा वैराग्य आदि की शिक्षाको अपने प्रिय स्थान मथुरा वृन्दावन मे करवाऊंगा ।
मै अपनी माता की आज्ञा से यहाँ नीलाचल मे वास कर रहा हूँ इसलिए मैं वहाँ जाकार धर्म की शिक्षा नही दे सकता । मैं अपने इन समस्त कार्योको तुम्हारी देहके द्वारा सम्पन्न कराना चाहता हूँ और तुम हो कि अपनी इस देहको त्याग करना चाहते हो? बताओ , मैं कैसे इसे सहन करुं ? महाप्रभु श्री हरिदास जी से कहने लगे- हरिदास ! सुनो, यह सनातन पराये धनको नष्ट करना चाहता है। दूसरेके अमानती धन अथवा वस्तुको कोई भी नहीं खाता, बिगाडता । तुम इसे इस प्रकार का अन्यायपूर्ण कार्य मत करने देना ।
श्री हरिदास जी ने कहा – प्रभो ! मैं तो मिथ्या अभिमान करता हूँ कि मैं आपके हृदय को जानता हूँ। वास्तव में मैं आपके हृदयके गूढ़ भावको नहीं समझ पाता हूँ। क्या क्या कार्यं आप किसके द्वारा करवाते हैं, यह बात जब तक आप स्वयं नहीं बतायेंगे तब तक कोई भी इसे नही जान सकता । प्रभो !आपने सनातन को जिस प्रकार से अंगीकार है, इतना सौभाग्य तो और किसीका हो ही नही सकता ।
तब सनातन गोस्वामी को आलिंगन करके मध्याह्न स्नानादि करनेके लिए महाप्रभु चले गये ।
श्री हरिदास जी श्री सनातन गोस्वामी को आलिंगन करते हुए कहने लगे -सनातन ! तुम्हारे भाग्यकी सीमा नहीं कही जा सकती है। तुम्हारी देहको प्रभु अपना ‘निज धन’ मानकर स्वीकार करते हैं। तुम्हारे समान भाग्यशाली और कोई नहीं हो सकता।
महाप्रभु अपनी देहसे जो कार्य नहीं का सकते है, वह कार्य वे तुमसे करायेंगे और वह भी अपने प्रिय मथुरा वृन्दावन मे। भगवान जो कार्य कराना चाहते है, वह अवश्य ही पूर्ण होता है। निश्चय ही, यह तुम्हारा परम सौभाग्य है । श्रीमन् महाप्रभु भक्तिसिद्धान्तमूलक शास्त्रो का प्रणयन तथा वैष्णवाचरण निर्णय तुम्हारे द्वारा करवाएंगे यही प्रभु की इच्छा है । सनातन ! मेरी यह देह प्रभुके किसी भो काम में नहीं लग पायी। भारत भूमि में जन्म लेकर भी मेरा जीवन वृथा हौ चला गया ।
श्री हरिदास जी की दैन्यपूर्ण बाते सूनकर श्री सनातन गोसवामी ने कहा-आपके समान सौभाग्यशाली और कौन हो सकता है? श्रीमन् महाप्रभुके भक्तोंमें आप परम सौभण्यशाली है । महाप्रभु जी के अवतारका एक प्रयोजन श्रीहरिनाम का प्रचार है । वह श्री हरिनाम प्रचार का अपना कार्य श्रीमन् महाप्रभु आपके द्वारा करवा रहे हैं। आप प्रतिदिन तीन लाख श्री नाम संकीर्तन करते हैं और सबके सामने श्रीनाम की महिमाका गान करते है ।
कोई कोई स्वयं तो भक्ति का आचरण करते हैं, किन्तु उसका प्रचार नही करते तथा कोई कोई भक्ति का प्रचार तो करते है किन्तु स्वयं उसका आचरण नहीं करते । आप शुद्ध हरिनाम ग्रहण करने के कारण ‘आचार्य’ तथा उच्च संकीर्तन कर्के सभी जगत वासियो को नाम यज्ञ में दीक्षित करने के कारण ‘प्रचारक’ है । अत्त: आप ही सबके गुरू तथा समस्त जगतके पूज्य हैं I इस प्रकार श्री हरिदास जी तथा श्री सनातन गोस्वामी दोनों एक साथ रहकर श्रीकृष्ण कथाका अनेक प्रकार से रसास्वादन करते थे ।
श्रीमन् महाप्रभु जब जब श्रीसनातन गोस्वामी को देखते, तब तब बलपूर्वक उनका आलिंगन करते । इससे सनातन गोसवामी के हृदयमे बहुत दुख होता। एक दिन सनातन गोस्वामी ने इस विषय में श्रीजगदानन्द पंडित से परामर्श किया तथा अपने कर्त्तव्य के विषय मे पूछा । श्रीजगदानन्द पंडित ने सनातन गोस्वामी को रथ यात्राके बाद वृन्दावन
लौट जानेका उपदेश दिया । महाप्रभु ने जब इस बातको सुना तो उन्होंने जगदानन्द पंडित को डांटा तथा उनकी अपेक्षा श्री सनातन गोस्वामी की श्रेष्ठता स्थापित की।
महाप्रभुने श्री सनातन गोस्वामी से कहा – तुम शुद्धभक्त हो, तुम्हारी देहका भद्र और अभद्र होना विचारणीय नहीं है । विशेष करके मैं सन्यासी हूँ मेरे लिए तो उसका विचार करना कदापि उचित नहीं है । महाप्रभु की बात सुनकर श्री हरिदास जी ने कहा – प्रभो !यह जो सबआपने कहा है, वह सब आपके द्वारा हमारी वञ्चना है, मैं यह सबकुछ नहीं मानता हूँ। हम पतित अधमो को जो आपने अंगीकार किया है उसीसे ही आपके दीन दयालुताका गुण प्रकाशित ही गया है ।
श्री हरिदास जी की बात सुनकर महाप्रभुने मुस्कराते हुए कहा – सुनो हरिदास ! सनातन ! तुम दोनोंके प्रति मेरे मनमे जो भाव है, मैं अब उसे कहता हूँ। तुम्हें मैं लालन योग्य और अपने आपको लालन कर्त्ता मानता हूँ। लालन – कर्त्ता अपने लाल्य के दोषो को नहीं समझता। मैं तुम्हारे गौरव-सम्मान अथवा पूजाका पात्र हूँ ,यह बात भक्त प्रेमवत्सल मेरे मनमे नहीं रहती। मैं तो तुम सबको अपना बालक मानता हूँ। महाप्रभुके वचन सुनकर श्री हरिदास जी ने कहा -प्रभो ! आप ईश्वर हैं, दयामय है आपके ह्रदय की गम्भीरता को कोई भी नहीं जान सकता ।
वासुसेव विप्र के अंगो में गलित – कुष्ठ (देहको गला देनेवाला कुष्ठ) था तथा उसके अंगो में कीड़े पड़ चुके थे, आपने कृपा करके एकबार उसे आलिंगन प्रदान दिया था, जिससे उसका शरीर कामदेव के समान हो गया था । किन्तु आपके द्वारा अनेक बार आलिंगित होनेपर भी श्रीसनातन गोस्वामी का रोग दूर नही हो रहा, अतएव) आपकी कृपा की तरंग को कौंन समझ सकता है?
श्रीमन् महाप्रभुने कहा – हरिदास ! वैष्णवो की देह कभी भी प्राकृत नहीं होती, भक्त की अप्राकृत देह तो चिदानन्दमय होती है । दीक्षा के समय भक्त गुरुदेव के माध्यमसे भगवान् नके चरणकमलो मे आत्मसमर्पण करता है, उसी समय श्रीकृष्ण उसे अपने समान चिदानन्दमय बना देते हैं। भगवान भक्त को कोई दूसरी देह प्रदान नहीं करते, बल्कि उसकी उसी देहको ही चिदानन्दमय बना देते हैं। भक्त अपनी उसी चिदानन्दमय देहके द्वारा ही भगवान् की सेवा करता है ।
हरिदास ! श्रीकृष्ण ने सनातन की देह में चर्म रोग उत्पन्न कर करके मेरी परीक्षा के लिए इसे यहाँ भेज दिया है। यदि मैं इससे घृणा करके इसका आलिंगन न करता, तो मैं श्रीकृष्ण के समक्ष अपराधी बनता। सनातन श्री भगवान का पार्षद है, इसकी देहमें दुर्गन्ध कहाँ? मैने तो पहले दिन इसे आलिंगन करते ही चतु:सम (चन्दन, कस्तूरी, केसर तथा अगरु) की सुगन्धिता का अनुभव किया था। श्री सनातन गोस्वामी की ओर देखते हुए महाप्रभुने कहा – सनातन ! तुम बिलकुल भी दुखी मत होना, तुम्हें आलिङ्गन करके मुझे बहुत सुख प्राप्त होता है ।
यद्यपि श्रीमन महाप्रभु का रहे है कि भगवान् ने उनकी परीक्षा के लिए ही श्री सनातन गोस्वामी को इस प्रकार रोग ग्रस्त करके नीलाचल भेजा है, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में श्रीमन् महाप्रभु श्री सनातन गोस्वामी के साथ साथ श्री हरिदास जी की भी अनेकानेक प्रकार से परीक्षा ले रहे थे, जिसमें वे दोनो सम्पूर्ण रूपसे उत्तीर्ण हूए। इसलिए आज परीक्षा समाप्त होनेपर श्रीमन् महाप्रभुने पुन: श्रीसनातन गोस्वामी का आलिङ्गन किया और आज देखते ही देखते श्री सनातन गोस्वामी का चर्म रोग दूर हो गया तथा उनकी देह सुवर्ण की भांति उज्ज्वल हो गयी।
महाप्रभु की यह लोला देखकर श्री हरिदास जी चमत्कृत हो उठे तथा प्रभुसे कहने लगे -प्रभो ! ये सब आपकी लीला है कि आपने पहले सनातन को झारिखण्ड का पानी पिलवाया, जिसके कारण इसको देहमें खाज हो गयी । आपने इस रोगके द्वारा सनातन की परीक्षा ली है, आपकी इस लीला को कोई नहीं जान सकता । तदनन्तर श्रीमन् महाप्रभुने श्री हरिदास जी तथा श्री सनातन गोस्वामी का आलिङ्गन किया और अपने स्थानपर चले गये । श्री हरिदास तथा श्री सनातन गोस्वामी श्रीमन् महाप्रभुके गुण गाते गाते प्रेम में विभोर हो गये । इस प्रकार श्री सनातन गोस्वामी बहुत दिनों तक नीलाचल में रहे तथा श्री हरिदास जी के साथ श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु की गुण कथाओंका आस्वादन करते रहे।
श्री हरिदास जी का वैकुण्ठ गमन
श्रीमन् महाप्रभु का सेवक गोविन्द नित्य की भाँति महाप्रसाद लेकर हरिदास के पास पहुँचा। रोज वह हरिदासजी को आसन पर बैठे हुए नाम जपते पाता था। उसदिन उसने देखा हरिदास जी सामने के तख्त पर आँख बंद किये हुए लेट रहे हैं।
उनके श्रीमुख से आप ही आप निकल रहा था-
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
गोविन्द ने धीर से कहा- हरिदास जी ! उठो, आज कैसे सुस्ती में पड़े हो। कुछ सम्भ्रम के साथ चैंककर आँखें खोलते हुए भर्राई आवाज में हरिदासजी ने पूछा- कौन? गोविन्द ने कहा- कोई नहीं, मैं हूँ गोविन्द। क्यों क्या हाल है? पड़े कैसे हो? प्रसाद लाया हूँ, ला प्रसाद पा लो। कुछ क्षीण स्वर में हरिदास जी ने कहा- प्रसाद लाये हो? प्रसाद कैसे पाऊँ? गोविन्द ने कुछ ममता के स्वर में कहा- क्यों, क्यों, बात क्या है, बताओं तो सही। तबीयत तो अच्छी है न? हरिदास जी ने फिर उसी प्रकार विषण्णतायुक्त वाणी में कहा- हाँ, तबीयत अचछी है, किन्तु आज नाम जप की संख्या पूरी नहीं हुई। बिना संख्या पूरी किये प्रसाद कैसे पाऊँ? तुम ले आये हो तो अब प्रसाद का अपमान करते भी नहीं बनता।
यह कहकर उन्होंने प्रसाद को प्रणाम किया और उसमें से एक कण लेकर मुख में डाल लियो। गोविन्द चला गया, उसने सब हाल महाप्रभु से जाकर कहा। दूसरे दिन सदा की भाँति समुद्रस्नान करके प्रभु हरिदास जी के आश्रम में गये। उस समय भी हरिदास जी जमीन पर पड़े झपकी ले रहे थे। पास में ही मिट्टी के करवे में जल भरा रखा था। आज आश्रम सदा की भाँति झाड़ा बुहारा नहीं गया था। गौरहारी ने हरिदास जी के आश्रम में जाकर पूछा – तबीयत कैसी है? शरीर तो स्वस्थ है न? हरिदास जी ने चैंककर प्रभु को प्रणाम किया और क्षीण स्वर में कहा-
शरीर तो स्वस्थ है, मन स्वस्थ नहीं है। प्रभु ने पूछा- क्यों मन को क्या क्लेश है, किस बात की चिंता है? उसी प्रकार दीनता के स्वर में हरिदास जी ने कहा- यही चिन्ता है प्रभो ! कि नाम की संख्या अब पूरी नहीं होती। प्रभु ने ममता के स्वर में कुछ बात पर जोर देते हुए कहा- देखो, अब तुम इतने वृद्ध हो गये हो। बहुत हठ ठीक नहीं होती। नाम की संख्या कुछ कम कर दो। तुम्हारे लिये क्या संख्या और क्या जप? तुम तो नित्यसिद्ध पुरुष हो, तुम्हारे सभी कार्य केवल लोकशिक्षा के निमित्त होते हैं।
हरिदास जी ने कहा- प्रभो ! अब उतना जप होता ही नहीं, स्वतः ही कम हो गया है। हाँ, मुझे आपके श्री चरणों में एक निवेदन करना था। प्रभु पास में ही एक आसन खींचकर बैठ गये और प्यार से कहने लगे- कहो, क्या कहना चाहते हो? अत्यन्त ही दीनता के साथ हरिदास जी ने कहा-आपके लक्षणों से मुझे प्रतीत हो गया है कि आप शीघ्र ही लीलासंवरण करना चाहते हैं।
प्रभो ! मेरी श्री चरणों में यही अन्तिम प्रार्थना है कि यह दुःख प्रद दृश्य मुझे अपनी आँखों से देखना न पड़े। प्रभो ! मेरा हृदय फट जायगा। मैं इस प्रकार हृदय फटकर मृत्यु नहीं चाहता। मेरी तो मनोकामना यही है कि नेत्रों के सामने आपकी मनमोहिनी मूरत हो, हृदय में आपके सुन्दर सुवर्ण वर्ण की सलोनी सूरत हो, जिह्वा पर मधुरातिमधुर श्रीकृष्ण चैतन्य यह त्रैलोक्यपावन नाम हो और आपके चारु चरित्रों का चिन्तन करते-करते मैं इस नश्वर शरीर को त्याग करूँ। यही मेरी साध है, यह मोर उत्कट अभिलाषा है। आप ईश्वर हैं, सब कुछ करने में समर्थ हैं। इस भिक्षा को तो आप मुझे अवश्य ही दे दें।
प्रभु ने डबडबायी आँखों से कहा- हरिदास ! मालूम पड़ता है, अब तुम लीलासंवरण करना चाहते हो। देखो, यह बात ठीक नहीं। पुरी मेें मेरा और कौन है, तुम्हारी ही संगति से तो यहाँ पड़ा हुआ हूँ। हम तुम साथ ही रहे, साथ ही संकीर्तन किया, अब तुम मुझे अकेला छोड़कर जाओगे, यह ठीक नहीं है। धीरे-धीरे खिसककर प्रभु के पैरों में मस्तक रगड़ते हुए हरिदास कहने लगे- प्रभो ! ऐसी बात फिर कभी अपने श्री मुख से न निकालें।
मेरा जन्म म्लेच्छकुल में हुआ। जन्म का अनाथ, अनपढ़ और अनाश्रित, संसार से तिरस्कृत और श्री हीन कर्मों के कारण अत्यन्त ही अधम, तिसपर भी आपने मुझे अपनाया; नरक से लेकर स्वर्ग में बिठाया।
बड़े-बड़े श्रोत्रिय, ब्राह्मणों से सम्मान कराया, त्रैलोक्यपावन पुरुषोत्त क्षेत्र का देवदुर्लभ वास प्रदान किया। प्रभो ! दीन हीन कंगाल को रंक से चक्रवर्ती बना दिया, यह आप की ही सामर्थ्य है। आप करनी न करनी सभी कुछ कर सकते हैं। आपकी महिमा का पार कौन पा सकता है? मेरी प्रार्थना को स्वीकार कीजिये और मुझे अपने मनोवांछित वरदान को दीजिये।
प्रभु ने गदगद कण्ठ से कहा- हरिदास ! तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध करने की भला सामर्थ्य ही किसकी है? जिसमें तुम्हें सुख हो, वही करो। प्रभु इतना कहकर अपने स्थान को चले गये। महाप्रभु ने गोविन्द से कह दिया कि-
हरिदास की खूब देख-रेख रखो, अब वे इस पांच भौतिक शरीर को छोड़ना चाहते हैं। गोविन्द प्रसाद लेकर रोज जाता था, किन्तु हरिदास जी की भूख तो अब समाप्त हो गयी। फूटे हुए फोड़े में पुलटिस बाँधने से लाभ ही क्या? छिद्र हुए घड़े में जल रखने से प्रयोजन ही क्या? उसमें अब जल सुरक्षित न रहेगा।
महाप्रभु नित्य हरिदास जी को देखने जाया करते थे। एक दिन उन्होंने देखा; हरिदास जी के शरीर की दशा अत्यन्त ही शोचनीय है। वे उसी समय अपने आश्रम पर गये और उसी समय गोविन्द के द्वारा अपने सभी अन्तरंग भक्तों को बुलाया। सबके आ जाने पर प्रभु उन्हें साथ लिये हुए हरिदास जी के आश्रम में जा पहुँचे।
हरिदास जी पृथ्वी पर पड़े हुए धीरे धीरे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
इस महामन्त्र का जप कर हरे थे। प्रभु ने पूछा- क्यों हरिदास ! कहो, क्या हाल है? आपने जैसा रखा है वैसा ही हूँ प्रभु ,सब आनन्द है ! कहकर हरिदास ने कष्ट के साथ करवट बदली। महाप्रभु उनके मस्तक पर धीरे-धीरे हाथ फिराने लगे। राय रामानन्द, सार्वभौम भटटाचार्य, स्वरूप दामोदर, वक्रेश्वर पण्डित, गदाधर गोस्वामी, काशीश्वर, जगदानन्द पण्डित आदि सभी अन्तरंग भक्त हरिदास जी को चारों ओर से घेरकर बैठ गये।
धीरे-धीरे भक्तों ने संकीर्तन आरम्भ किया। भट्टाचार्य जोश में आकर उठ खड़े हुए और जोरों से नृत्य करने लगे। अब तो सभी भक्त उठकर और हरिदास जी को घेरकर जोरों के साथ गाने-बजाने और नाचने लगे। संकीर्तन की कर्ण प्रिय ध्वनि सुनकर सैकड़ों आदमी वहाँ एकत्रित हो गये। कुछ क्षण के अनन्तर प्रभु ने संकीर्तन बन्द करा दिया, भक्तों के सहित हरिदास जी को चारों ओर से घेरकर बैठ गये। प्रभु के दोनों कमल के समान कमल के समान नेत्रों में जल भरा हुआ था, कण्ठ शोक के कारण गदगद हो रहा था।
उन्होंने कष्ट के साथ धीरे-धीरे रामानन्द तथा सार्वभौम आदि भक्तों से कहना आरम्भ किया- हरिदास जी के भक्ति भाव का बखान सहस्त्र मुख वाले शेषनाग जी भी अनन्त वर्षों में नहीं कर सकते। इनकी सहिष्णुता-जागररूकता, तितिक्षा और भगवन्नाम में अनन्यभाव से निष्ठा आदि सभी बातें परम आदर्श और अनुकरणीय हैं। इनका जैसा वैराग्य था वैसा सभी मनुष्यों में नहीं हो सकता। कोटि-कोटि पुरुषों में कही खोजने से किसी में मिल सके तो मिले, नहीं तो इन्होंने अपना आचरण असम्भव सा ही बना लिया था। यह कहकर प्रभु बेंतों की घटना, नाग की घटना तथा इनके सम्बन्ध की और प्रलोभन-सम्बन्धी दैवी घटनाओं का वर्णन करने लगे।
सभी भक्त इनके अनुपमेय गुणों को सुनकर इनके पैरों की धूलि को मस्तक पर मलने लगे। उसी समय बड़े कष्ट से हरिदास जी ने प्रभु को सामने आने का संकेत किया। भक्तवत्सल चैतन्य उन महापुरूष के सामने बैठ गये। अब तक उनकी आँखें बन्द थीं, अब उन्होंने दोनों आँखों को खोल लिया और बिना पलक मारे अनिमेषभाव से वे प्रभु के श्री मुख की ओर निहारने लगे। मानो वे अपने दोनों बड़े-बड़े नेत्रों द्वारा महाप्रभु के मनोहर मुखारविन्द के मकरन्द का तन्मयता के साथ पान कर रहे हों। उनकी दृष्टि महाप्रभु के श्री मुख की ओर से क्षणभर को भी इधर-उधर हटती नहीं थी। सभी मौन थे, चारों ओर नीरवता और स्तब्धता छायी हुई थी।
हरिदास जी अत्यन्त ही पिपासु की तरह प्रभु की मकरन्द माधुरी को पी रहे थे। अब उन्होंने पास में बैठे हुए भक्तों की धीरे-धीरे पदधूलि उठाकर अपने काँपते हुए हाथों से शरीर पर मली। उनकी दोनों आँखों की कोरों में से अश्रुओं की बूँदें निकल-निकलकर पृथ्वी में विलीन होती जाती थीं। मानों वे नीचे के लोक में हरिदास-विजयोत्सव का संवाद देने जा रही हों। उनकी आँखों के पलक गिरते नहीं थे, जिहवा से धीरे-धीरे ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ ‘श्रीकृष्ण चैतन्य’ इन नामों को उच्चारण कर रहे थे।
देखते-ही-देखते उनके प्राण-पखेरू इस जीर्ण-शीर्ण कलेवर को परित्याग करके न जाने किस लोक की ओर चले गये। उनकी आँखें खुली-की-खुली ही रह गयीं, उनके पलक फिर गिरे नहीं। मीन की तरह मानो वे पलकहीन आँखें, निरन्तररूप से त्रैलोक्य को शीतलता प्रदान करने वाले चैतन्यरूपी जल का आश्रय ग्रहण करके उसी की ओर टकट की लगाये अविच्छिन्नभाव से देख रही हैं।
सभी भक्तों ने एक साथ हरिध्वनि की। महाप्रभु उनके प्राणहीन कलेवर को अपनी गोदी में उठाकर जोरों के साथ नृत्य करने लगे। सभी भक्त रुदन करते हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ की हृदयविदारक ध्वनि से मानो आकाश के हृदय के भी टुकड़े-टुकड़े करने लगे। उस समय का दृश्य बड़ा ही करुणा जनक था। जहाँ श्री चैतन्य हरिदास के प्राणहीन शरीर को गोदी में लेकर रोते-रोते नृत्य कर रहे हों वहाँ अन्य भक्तों की कक्या दशा हुई होगी, इसका पाठक ही अनुमान लगा सकते हैं। उसका कथन करना हमारी शक्ति के बाहर की बात है।
इस प्रकार बड़ी देर तक भक्तों के सहित प्रभु कीर्तन करते रहे। अनन्तर श्री जगन्नाथ जी का प्रसादी वस्त्र मँगाया गया। उससे शरीर को लपेटकर उनका बड़ा भारी विमान बनाया गया। सुन्दर कलाबे की डोरियों से कसकर उनका शरीर विमान पर रखा गया।
सैकड़ों भक्त ढोल, करतार झाँझ, मृदंग और शंख, घडि़याल तथा घण्टा बजाते हुए विमान के आगे-आगे चलने लगे। सभी भक्त बारी-बारी से हरिदास जी के विमान में कन्धा लगाते थे।
महाप्रभु सबसे आगे विमान के सामने अपना उन्मत्त नृत्य करते जाते थे। वे हरिदास जी की गुणावली का निरन्तर गान कर रहे थे। इस प्रकार खूब धूम-धाम के साथ वे हरिदास जी के शव को लेकर समुद्र तट पर पहुँचे। समुद्र तट पर पहुँचकर भक्तों ने हरिदास जी के शरीर को समुद्र जल में स्नान कराया। महाप्रभु अश्रुविमोचन करते हुए गदगद कण्ठ से कहने लगे- समुद्र आज से पवित्र हेा गया, अब यह हरिदास जी के अंगस्पर्श से महातीर्थ बन गया।
यह कहकर आपने हरिदास जी का पादोदक पान किया।सभी भक्तों ने हरिदास जी के पादोदक से अपने को कृतकृत्य समझा। बालू में एक गडढा खोदकर उसमें हरिदास जी के शरीर को समाधिस्थ किया गया। क्योंकि वे संन्यासी थे, संन्यासी के शरीर की शास्त्रों में ऐसी ही विधि बतायाी है। प्रभु ने अपने हाथों से गडढे में बालू दी और उनकी समाधि पर सुन्दरसा एक चबूतरा बनाया। सभी ने शोकयुक्त प्रेम के आवेश में उन्मत्त होकर समाधि के चारों ओर संकीर्तन किया और समुद्र स्नान करके तथा हरिदास जी की समाधि की प्रदक्षिणा करके सभी ने पुरी की ओर प्रस्थान किया। पथ में प्रभु हरिदास जी की प्रशंसा करते-करते प्रेम में पागलों की भाँति प्रलाप करते जाते थे।
सिंहद्वार पर पहुँच कर प्रभु रोते-रोते अपना अंचल पसार-पसारकर दुकानदारों से भिक्षा माँगने लगे।
वे कहते थे-भैया! मैं अपने हरिदास का विजयोत्सव मनाऊँगा, मुझे हरिदास के नाम पर भिक्षा दो। दुकानदार अपना-अपना सभी प्रसाद प्रभु की झोली में डालने लगे। तब स्वरूप दामोदर जी ने प्रभु का हाथ पकड़कर कहा- प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं? भिक्षा माँगने के लिये हम आपके सेवक ही बहुत हैं, आपको इस प्रकार माँगते देखकर हमें दुःख हो रहा है, आप चलिये।
जितना भी आप चाहेंगे उतना ही प्रसाद हम लोग माँग-माँगकर एकत्रित कर देंगे। इस प्रकार प्रभु को समझा-बुझाकर स्वरूप गोस्वामी ने उन्हें स्थान पर भिजवा दिया और आप चार-पाँच भक्तों को साथ लेकर दुकानों पर महाप्रसाद माँगने चले। उस दिन दुकानदारों ने उदारता की हद कर डाली।
उनके पास जितना भी प्रसाद था, सभी दे डाला। इतने में ही वाणीनाथ, काशी मिश्र आदि बहुत-से भक्त मनों प्रसाद लेकर प्रभु के आश्रम पर आ उपस्थित हुए। चारों ओर महाप्रसाद का ढेर लग गया। जो भी सुनता वही हरिदास जी के विजयोत्सव में सम्मिलित होने के लिये दौड़ा आता। इस प्रकार हजारों आदमी वहाँ एकत्रित हो गये।
महाप्रभु स्वयं अपने हाथों से सभी को परोसने लगे। महाप्रभु का परोसना विचित्र तो होता ही था। एक-एक पत्तल पर चार-चार, पाँच-पाँच आदमियों के योग्य भोजन और तारीफ की बात यह कि लोग सभी को खा जाते थे। भक्तों ने आग्रह पूर्वक कहा- जब तक महाप्रभु प्रसाद न पा लेंगे, तब तक हममें से कोई एक ग्रास भी मुँह में न डालेगा । तब प्रभु ने परासना बंद कर दिया और पुरा तथा भारती आदि संन्यासियों के साथ काशी मिर के लाये हुए प्रसाद को पाने लगे, क्योंकि उस दिन प्रभु का उन्हीं के यहाँ निमन्त्रण था।
महाप्रभु ने सभी भक्तों को खू्रब आग्रह पूर्वक भोजन कराया। सभी ने प्रसाद ना लेने के अनन्तर हरिध्वनि की। तब प्रभु ऊपर को हाथ उठाकर कहने लगे- हरिदास जी का जिसने संग किया, जिसने उनके दर्शन किये, उनके गड्ढे में बालू दी, उनका पादोदक नाप किया, उनके विजयोत्सव में प्रसाद पाया, वह कृतार्थ हो गया। उसे श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति अवश्य हो सकेगी। वह अवश्य ही भगवत्कृपा का भाजन बन सकेगा। यह कहकर प्रभु ने जारो से हरिदास जी की जय बोली। हरिदास जी की जय -के विशाल घोष से आकाश मण्डल गूँजने लगा। हरि-हरि ध्वनि के साथ हरिदास जी का विजयोत्सव समाप्त हुआ।
श्री क्षेत्र जगन्नाथपुरी में टोटा गोपीनाथ जी के रास्ते में समुद्र तीर पर अब भी हरिदास जी की सुन्दर समाधि बनी हुई है। वहाँ पर एक बहुत पुराना बकुल (मौलसिर) का वृक्ष है, उसे ‘सिद्ध बकुल’ कहते हैं। अब भी वहाँ प्रतिवर्ष अनन्त चतुर्दशी के दिवस हरिदास जी का विजयोत्सव मनाया जाता है। उन महामना हरिदास जी के चरणों में हम कोटि कोटि प्रणाम करते हुए उनके इस विजयोत्सव प्रसंग को समाप्त करते हैं।