http://www.bhaktamal.com ® गौड़ीय महात्मा पूज्यपाद श्री रासिकानंद प्रभु के वंशज पूज्यपाद श्री कृष्ण गोपालानंद जी द्वारा श्यामानंद चरित्र और श्री हित चरण अनुरागी संतो द्वारा व्याख्यान ,आशीर्वचनों पर आधारित । कृपया अपने नाम से प्रकाशित न करे ।
वन के पशुओ और दो शेरो पर कृपा :
रास्ते में घने जंगलो से होते हुए उन्होंने ना केवल मनुष्यो का उद्धार किया परंतु हाथी सिंह, भालु, मोर, हिरन आदि पशुओ को भी हरिनाम मंत्र प्रदान करके तार दिया । चलते चलते अचानक दो बड़े बड़े शेर उनका रास्ता रोक कर खड़े हो गए । उनकी दहाड़ सुनकर सभी वैष्णव भयभीत होने लगे । श्री श्यामानंद जी ने हाथ उठाकर कहा – श्री हरिनाम मंत्र का उच्चारण करो । उच्च स्वर में श्यामानंद प्रभु बोल उठे –
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
हरिनाम श्रवण करते ही वे शेर शांत हो गए। श्यामानंद प्रभु के पास आकर दोनों ने झुककर प्रणाम् किया और वहां से निकल गए ।
वृंदावन में श्यामानंद प्रभु को इतने वर्षो बाद पुनः देखकर श्रीपाद जीव गोस्वामी और अन्य वैष्णवो को बहुत आनंद हुआ । वृंदावन में श्यामानंद प्रभु अपने आराध्य राधा श्यामसुंदर की सेवा में लग गए । एक दिन श्यामानंद प्रभु ध्यान में श्री प्रिया लाल जी की लीलाओं का रसास्वादन कर रहे थे । श्री श्यामसुंदर प्रभु ने ध्यान में कहा – हे श्यामानंद ! आजकल उत्कल देश के लोग पाप कर्म में रत होने लगे है , वे तामसी सिद्धियों और तंत्र मंत्र प्रयोग को ही भक्ति समझते है । वहाँ जाकर श्री रसिक मुरारी जी को अपना शिष्य बनाओ और साथ मिलकर वहाँ के जीवो का उद्धार करो ।
श्यामानंद प्रभु का मन अब वृंदावन छोड़ कर अन्यत्र कही जाने को नहीं हो रहा था । वे सोचने लगे की अभी तो उत्कल देश से आया हूं ,अब तो मै वृंदावन में ही रहूँगा । श्यामानंद जी ने प्रभु के इस आज्ञा के बारे में किसीको कुछ नहीं बताया और वृंदावन में ही रहने का निश्चय किया ।जब श्री कृष्ण ने देखा की श्यामानंद जी हमारी बात नहीं मान रहे है तो उन्होंने श्री जीव गोस्वामी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा – हे जीव ! मैंने तीन बार श्यामानंद से उत्कल देश जाने को कहा परंतु वह ब्रज छोड़कर नहीं जाता । अब आप ही उसे कुछ समझाओ । अगले दिन जीव गोस्वामी ने श्यामानंद को समझाकर उत्कल जाने के लिए कह दिया । श्यामानंद जी किशोरदास, श्यामदास , बालकदास आदि शिष्यो को साथ लेकर उत्कल देश को चल दिए ।
आगरा में यवन अधिकारी पर कृपा :
सभी वैष्णव जब आगरा पहुँचे तब वहाँ के यवन अधिकारी के कुछ सिपाहियो ने सब वैष्णवो सहित श्यामानंद जी को पकड़ लिया और कारागृह में डाल दिया । उन्हें शंका थी की यह सब डाकू है क्योंकि इनके पास अपना कोई पहचान पत्र अथवा चिन्ह नहीं है । रात में भगवान् श्री कृष्ण ने नरसिंह रूप धारण किया और यवन अधिकारी को स्वप्न में प्रकट होकर कहा की सभी वैष्णवो को कैद से मुक्त करे अन्यथा परिणाम अच्छा नहीं होगा । अगले दिन वह यवन अधिकारी भाग कर श्यामानंद जी के पास आया और चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा । श्यामानंद ने ने उसे क्षमा किया और से हरिनाम महामंत्र का प्रसाद प्रदान कर उसे वैष्णव बना दिया । उसको साधू सेवा करते रहना का उपदेश देकर श्यामानंद जी आगे की यात्रा करने लगे ।
भाटभूमि को श्राप से मुक्त कराना :
प्रयाग और वाराणसी होते हुए सभी वैष्णव गौड़ मंडल पहुंचे और बागड़ी नामक स्थान पर श्री श्याम रे का दर्शन किया । वहाँ से सभी वैष्णव भाटभूमि आये जहां के राजा ने बाद में श्यामानंद प्रभु से दीक्षा भी ग्रहण की । बहुत साल पहले उस क्षेत्र के किसी पूर्व राजा ने एकबार एक वैष्णव संत का अपमान कर दिया था । संत ने श्राप दे दिया और उस श्राप के प्रभाव से भाटभूमि में एक हिंसक शेर का आतंक फैला हुआ था । उस शेर के आतंक से सभी भयभीत थे । श्यामानंद प्रभु के चरण जिस दिन भाटभूमि पर पड़े थे उस दिन वह शेर वहाँ नहीं दिखाई दिया । सभी को आश्चर्य हुआ की आज शेर ने आतंक कैसे नहीं किया । श्यामानंद प्रभु ने कहा – अब कोई शेर यहां आतंक नहीं फैलायेगा । सभी लोग संतो का आदर करे और हरिनाम संकीर्तन करके अपना जीवन सफल बनाये। इस तरह श्यामानंद प्रभु की कृपा से वह क्षेत्र श्राप से मुक्त हो गया ।
पठान शेरखान पर कृपा :
श्री हरिनाम का प्रसाद सर्वत्र वितरित करते हुए श्यामानंद प्रभु धारेन्दा ग्राम पहुंचे । वहाँ पर एक दुष्ट पठान रहता था जिसका नाम था शेर खान । उसको नाम संकीर्तन केवल नाच गाना और हल्ला गुल्ला ही लगता था ।अपने कुछ साथियो को लेकर उसने वैष्णवो के मृदंग आदि सब वाद्य तोड़ दिए । वैष्णवो को कष्ट होता देखकर श्यामानंद प्रभु ने जोश में भरकर हुंकार किया और देखते देखते वहाँपर भीषण अग्नि प्रकट हो गयी । उस अग्नि से यवनों के दाढ़ी और मूँछ जलने लगे । मुख से रक्त वमन होने लगा और अधमरी अवस्था में वे सब वहाँ से जान बचाकर भागे । अगले दिन श्यामानंद प्रभु आस पास संकीर्तन कर रहे थे उस समय पठान शेर खान उनके पास आकर चरणों में गिर पड़ा ।
श्यामानंद प्रभु से क्षमा याचना करते हुए कहने लगा – कल रात स्वप्न में मैंने अल्लाह को बहुत भयंकर रूप में देखा । कुछ देर बाद वे सुंदर रूप में दिखाई दिए और उन्होंने अपना परिचय चैतन्य प्रभु नाम से दिया ।उन्होंने मुझसे कहा की श्यामानंद जी से क्षमा मांगकर उनसे दीक्षा लो अन्यथा तुम्हे नर्क की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेगी । पठान श्यामानंद प्रभु से कहने लगा – हे प्रभु ! मेरे अपराध को क्षमा करे , आप मुझपर कृपा करके अपना बना लीजिये ।श्यामानंद प्रभु ने पठान को क्षमा दिया और हरिनाम मंत्र देकर उसका नाम श्री चैतन्य दास रख दिया ।
श्री दामोदर पंडित पर कृपा :
घंटाशिला पहुँचकर उनकी भेट श्री रासिकमुरारि जी से हुई जो आगे चलकर उनके प्रमुख शिष्य भी हुए । श्री रासिक मुरारी ,उनकी पुत्री देवकी और पत्नी इच्छादेवी जिसका नाम बाद में श्यामदासी रखा गया इन सबको श्यामानंद प्रभु ने श्री महामंत्र की दीक्षा प्रदान की । श्री श्यामानंद और रासिकानंद प्रभु ने साथ में हईं घूम कर हरिनाम का बहुत प्रचार किया । एक दिन वे चाकुलिया नामक स्थान पर पहुंचे जहांपर रासिकानंद प्रभु के पुराने मित्र दामोदर पंडित भी रहते थे । दामोदर पंडित बहुत विद्वान थे और योगमार्ग से साधना किया करते थे । भक्ति मार्ग में कुछ विशेष रूचि वे नहीं रखते थे । एक दिन रासिकानंद प्रभु ने दामोदर पंडित से कहा की उसे श्यामानंद प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिए ।
श्री रासिकानंद प्रभु ने दामोदर से कहा की ऐसे संत भगवान् की विशेष कृपा से ही मिलते है । श्री दामोदर पंडित अभिमान में भरकर कहने लगे की वो दीक्षा तभी लेंगे जब उन्हे श्यामानंद प्रभु में कोई विशेष बात की अनुभूति होगी अन्यथा नहीं ।
चाकुलिया ग्राम में खरबा नदी के तट पर एक छोटे से वन में नित्यप्रति दामोदर पंडित योगसाधना किया करते थे । एक दिन योगसाधना करते करते सहसा सर्वत्र प्रकाश फ़ैल गया और दामोदर को दिव्य वृंदावन का दर्शन होने लगा । एक कल्पतरु के निचे रत्नजटित आसान पर मुस्कुराते हुए वंशीधारी श्री श्यामसुंदर विराजमान है और उन्होंने पीले वस्त्र धारण कर रखे है । श्री श्यामानंद प्रभु मंजरी सखी के रूप में प्रभु को पान (ताम्बूल ) अर्पण कर रहे थे ।
यह दृश्य देखकर दामोदर पंडित समझ गए की श्यामानंद प्रभु कोई साधारण मनुष्य नहीं है , वे श्री राधा माधव की कोई सहचरी सखी ही है । इतने पर भी उनका मन श्यामानंद प्रभु से दीक्षा लेने का नहीं हुआ । उन्हें अपने ब्राह्मणत्व का अभिमान था , उनका उच्च कुल का अभिमान उन्हें श्यामानंद प्रभु की शरण में जाने से रोक रहा था ।
जब वे वन से निकल कर अपने घर पहुंचे तब उन्होंने ने देखा की श्यामानंद प्रभु माला लेकर हरिनाम जप रहे है और उनके शरीर पर स्वर्ण का जनेऊ है । दामोदर पंडित की आँखें खुल गयी , वे जान गए की भगवान् की शुद्ध भक्ति ही सबसे श्रेष्ठ है और इसमें जाती, धर्म का कोई बंधन नहीं है । दामोदर पंडित चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगे । १६०९ ई में श्यामानंद प्रभु ने दामोदर पंडित , उनकी माता और दोनों पत्नियो को हरिनाम महामंत्र की दीक्षा प्रदान की और शुद्ध भक्ति के मार्ग पर लगा दिया ।
नविन किशोर धल और रंकिनी देवी पर कृपा :
श्यामानंद प्रभु और रासिकानंद प्रभु आगे चलते चलते धालभूमगढ़ पहुंचे । वहां के राजा नविन किशोर धल शाक्त थे और मुंडालिया रंकिनी देवी की आराधना किया करते थे । इस देवी की आराधना तांत्रिक पद्धति से की जाती थी और वह कई मनुष्यो को अपना आहार बना चुकी थी ।राजा ने श्यामानंद प्रभु ,रासिकानंद प्रभु और अन्य वैष्णवो के ठहरने की व्यवस्था देवी के मंदिर में करवा दी ।मध्य रात्री के समय भूख से व्याकुल वह देवी जब बहार निकल रही थी उस समय उसको श्री श्यामानंद प्रभु और रासिकानंद प्रभु सामने विश्राम करते दिखे । उनके प्रचंड वैष्णव तेज को देखकर देवी भयभीत हो गयी और उनके सामने स्वयं को असमर्थ जानकार वह देवी श्यामानंद प्रभु से अपनों पापो के लिए क्षमा मांगने लगी ।
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