http://www.bhaktamal.com ® पूज्यपाद श्री भक्तमाली जी के टीका , श्री राजेंद्रदास जी ,प्रियादास शरण एवं संतो के लेख पर आधारित । कृपया अपने नाम से प्रकाशित न करे ।
श्री गोपालदास जी और श्री विष्णुदास जी दोनों गुरुभाई थे ।अनंत सद्गुणों से युक्त, स्वभाव से गंभीर और हरिगुण गायक भक्तवर श्री गोपालदास जी बांबोली ग्राम के निवासी थे । भजन -भावमें शूरवीर श्री विष्णुदास जी दक्षिण दिशा में काशीर ग्राम के निवासी थे । ये दोनों संतो भक्तो को गुरु गोविन्द के सामान मानकर उनकी सेवा करते थे । साधु- सेवा में दोनों गुरुभाइयों का हार्दिक परम अनुराग था ।
यह दोनों साधु- संतो को ऐसे सुख देनेवाले थे की इन्होंने एक नयी रीति चलायी । जब कभी किसी संत महात्मा के यहाँ कोई महोत्सव ,भोज , भंडारा होता और इनको निमंत्रण आता तब ये बड़े उल्लास के साथ बैल गाड़ी में भरकर घी, चीनी और आटा आदि जो भी सामान लगता वह सब ले जाते थे । कोठारी से मित्रता कर के उससे कह देते – देखो संतो की सेवा में किसी चीज़ की कमी नहीं पड़नी चाहिए । क्या क्या सामान कम है हमें आप हमें बता दो , हम सब ला देंगे ,महंत जी को इस बारे में पता नहीं चलना चाहिए की यह सामान कौन दे गया । इस तरह ये दोनों गुरुभाई गुप्त रूप से सेवा करते थे ।
कभी भी सेवा का दिखावा और प्रदर्शन इन्होंने नहीं किया । किसी को पता न चले इस तरह से सेवा करते थे । ऐसा करने में इन दोनों का तात्पर्य यह होता कि महोत्सव में किसी प्रकार की कोई कमी न पड़े और संतो की निंदा न हो । इस भेद को कोई जान नहीं पाता था । महोत्सव संपन्न होने के बाद सबको बड़ा सुख होता था कि कोठार-भंडार में किसी वस्तु की कोई कमी नहीं हुई । बहुत से लोग तो कहने लगते की पता नहीं इस कोठार में कोई सिद्धि है या भंडारे में कोई सिद्धि है ।
एक बार एक संत के आश्रम में उत्सव था । श्री गोपालदास जी और श्री विष्णुदास जी रात्रि में बैलगाड़ी में सामान भरकर संत के स्थान पर जा रहे थे । रास्ते में चलते चलते बैलो की प्रकृति ख़राब हो गयी । बैल चल पाने में असमर्थ दिखाई पड़े । यह दोनों गुरुभाई ऐसे महान गोभक्त थे की उन्होंने बैलो को गाडी से खोल दिया और एक स्थान पर उन्हें बिठा दिया । जोर जबरदस्ती बैलो से काम नहीं करवाया । उन्होंने निश्चय किया की हम गाडी पर बैठ कर तो नित्यप्रति सेवा करते ही है परंतु कभी स्वयं गाडी खीचने की सेवा करने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ । आज श्री रघुनाथ ने कृपा की है अतः बैलो के स्थान पर लग जाओ ।
एक तरफ गोपालदास जी लग गए और एक तरफ विष्णुदास जी लग गए । कोसो दूर तक यह दोनों गुरुभाई गाडी खिंच कर संत के आश्रम पर ले गए । एक दिन इन दोनों ने हाथ जोडकर विनती करते हुए अपने गुरुदेव से कहा – भगवन ! बहुत दिनों से हमारे मन में ऐसी उमंग उठ रही है की एक महा-महोत्सव हो जिसमें अनेक साधु – संतो का आगमन हो और उनकी सेवा करने का अवसर प्राप्त हो । उसमे आपकी कृपा और आज्ञा की आवश्यकता है । श्री गुरुदेव बोले – यदि ऐसा विचार है तो शीघ्रातिशीघ्र तैयारी करो । बहुत उत्साहपूर्व महोत्सव करो और सारी धरती के संतो को न्यौता देना है प्रकट ,अप्रकट, सिद्ध ,गुप्त ,आकाशचारी सबको न्योता देना है । दोनों गुरुभाई बोले – गुरुदेव ! यह इतने कम समय में कैसे संभव है । इनके गुरुदेव महान् सिद्ध महात्मा थे , उन्होंने अपने कमण्डलु से हाथ में जल लेकर चारो ओर जल का छींटा दिया ।
जल के छींटे फेकते ही उनके सामने आकाश से चार सिद्ध पुरुष प्रकट हो गए । वे उन महात्मा को दण्डवत् प्रणाम् करके सामने खड़े हो गए और हाथ जोड़कर बोले – महाराज श्री ! कृपा करके बताइये की हमारे लिए क्या आज्ञा है ? महात्मा बोले – हमारे स्थान पर महोत्सव के निमित्त धरती के सभी संत महात्माओ को न्यौता देना है । वे चारो सिद्ध प्रणाम् करके जो आज्ञा कहकर वहाँ से चले गए । गुरूजी ने अपने दोनों शिष्यो से कहा कि इस उत्सव में महात्माओ की भारी भीड़ इकठ्ठा होगी ,अतः उनके ठहरने के लिए कुटियां (सुंदर निवास स्थान ) बनवाओ । उत्सव प्रारम्भ होते ही चारो ओर से संत महात्मा पधारे ।दोनों गुरुभाइयों ने उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम् किया फिर उन्हें आदरपूर्वक भोजन प्रसाद पवाया और वस्त्र भेंटकर सब प्रकार से प्रसन्न किया ।
लाखो की संख्या में संत महात्मा आते गए ।
उत्सव तो करवाना था एक दिन का परंतु उत्सव चलते चलते तीन दिन हो गए और देखते देखते तीन दिन से पांच दिन हो गए । इस प्रकार संत – समूह के द्वारा अखंड कथा कीर्तन होता रहा । उत्सव की समाप्ति उत्सव की समाप्ति होनेपर श्री गुरुदेव से दोनों शिष्यों ने पूछा – गुरुदेव जी ! हमलोग खूब दूर दूर तक जाकर भोज भंडारा करते है परंतु जो सब संत जो यहां पधारे थे , ऐसे ऐसे संत तो हमने कभी देखे ही नहीं । ये सब कहा से पधारे ? गुरुदेव ने दोनों को आज्ञा दी कि -कल प्रात: काल सम्पूर्ण सन्त-मण्डली को परिक्रमा करने जाना । वहाँ परमानन्द स्वरुप श्री नामदेव जी के दर्शन होंगे । वे उज्जवल वस्त्र धारण किये हुए हाथ में तानपुरा लिए प्रसन्न मनसे अकेले ही जा रहे होंगे । उनके चरणो मे सिर रखकर प्रणाम करना । वे तुम्हें परम सिद्ध सन्त श्री कबीरदास जी का दर्शन करा देंगे ।
श्री गुरुदेव की आज्ञा पाकर प्रात:काल होते ही दोनो गुरुभाई संतशाला की प्रदक्षिणा करने चले । वहाँ सफ़ेद वस्त्र में जो दिव्य महात्मा दिखाई पड़े हाथ में तानपुरा लिए । उनसे दोनों गुरुभाइयों ने पूछा – महाराज आप कौन है ? उन महात्मा ने कहा – पंढरीनाथ का लाडला ! लोग हमें नामदेव के नाम से जानते है । उस समय नामदेव जी समाधिस्त हो चुके थे । पता चल गया की यही दिव्य शरीरधारी श्री नामदेव जी है , दर्शन करके प्रसन्न हो गए । उमंग के साथ दोनों उनके श्रीचरणो मे लिपट गये । छुडाने से भी चरणो को नहीं छोड़ रहे थे, तब श्रीनामदेव जी ने उन दोनो से कहा-जहां साधु सन्तो का अपमान होता है, वहाँ हमलोग कभी नहीं आते-जाते हैं और जहां उनका सम्मान होता है, वहाँ हमलोग आते -जाते रहते हैं । हमने तुम्हारी सन्तो में प्रीति और सेवा करने की रीति देखी है, उससे हम बहुत ग्रसन्न हुए ।
ऐसा कहकर श्रीनामदेव जी ने दोनों भक्तों को गले से लगा लिया । फिर कहा- जाओ, आगे चलनेपर तुम्हे श्री कबीरदास जी मिलेंगे? जैसे ही ये दोनों आगे चले, एक दिव्या महात्मा दिखाई पड़े । दोनों ने पूछ – महाराज आप कौन है ? महात्मा बोले – जगत्गुरू श्री रामानंदाचार्य का शिष्य , लोग हमें कबीरदास जी के नाम से जानते है । प्रसन्न हो गए भक्तराज श्रीकबीर जी के दर्शन करके। उस समय श्रीकबीरदास जी भी भगवान् के धाम पधार चुके थे ।दोनो ने चरणो में पडकर प्रणाम किया । आंखों से आँसुओ की धारा बह चली ।
हंसकर श्रीकबीर जी बोले – कहो, अभी पीछे किसी सुखदायी सन्त के तुम्हें दर्शन हुए ? इन्होने उत्तर दिया- हाँ, महाराज दर्शन हुए । जहां साधू संतो की भाव से सेवा होती है ,वहाँ वैकुण्ठ साकेत गोलोक से तक संत आते है ।इसके पश्चात् श्रीकबीर जी ने दोनो का सम्मान किया । गुरूजी के पास दोनों गुरुभाई रोते रोते आये । गुरूजी ने पूछा – क्या हुआ ,क्यों रो रहे हो ? दोनों शिष्यो ने कहा – महाराज ! हमारा जीवन सफल हो गए , हमें श्री नामदेव और कबीरदास जी के दर्शन हुए । गुरूजी ने कहा – केवल यह दोनों संत ही नहीं अपितु ऐसे ऐसे बहुत से संत इस उत्सव में पधारे थे ।इस प्रकार इन दोनो गुरु भाइयों पर संतो और गुरुदेव की पूर्ण कृपा हुई ।