एक बड़े प्रेमी महात्मा थे जिनकी संतो में बड़ी श्रद्धा थी ।उनस नाम था श्री लक्ष्मण जी । भक्त लक्ष्मण जी बडे सद्भाव से साधुओं की सेवा करते थे। बिना किसी रोक टोक के लक्ष्मण जी के यहां संतो का दिन रात आवागमन रहता था । संतो के वेष मात्र का आदर लक्ष्मण जी करते थे ।इनकी इस उदारता को देखकर एक दुष्ट ने भी सन्तवेष धारण कर लिया और कई दिनतक लक्ष्मण भक्त के यहां रहा । लक्ष्मण जी उसकी भी सेवा करते रहे क्योंकि लक्ष्मीन जी वेषनिष्ठ सन्त थे । एक दिन मौका पाकर वह वेषधारी भगवान् के मंदिर में घुस गया । भगवां के आभूषण – पार्षदों को लेकर भाग गया । यह देखकर भगवान ने एक सिपाही का रूप धारणकर उसे जा पकडा और उसे श्रीलक्ष्मण भक्त के पास लाये और बोले – देखो, यह तुम्हरे मंदिर का सामान चुराकर ले जा रहा है ।
श्री लक्ष्मण जी ने कहा – इन संत को सामान की आवश्यकता होगी । इसलिये ले जा रहे हैं । मेरे मास जो कुछ है , इन्ही का है । इनहें ले जाने दो । अब वे सिपाही भगवान् क्या करते ? वह सामान लेकर गया तो भगवान भी साथ साथ चले । फिर उसके आगे- आगे चलने लगे इसके बाद अन्तर्धान हो गये । इधर-उधर बहुत निगाह दौडानेपर भी नहीं दीखे । इस तरह कभी प्रकट कभी अप्रकट होते देखकर उसे भय हुआ । भगवान् की कृपा से उसकी बुद्धि निर्मल हो गयी ।उसने मन मे अनुमान कर लिया कि भक्तों के हितकारी भगवान् की यह लीला है । मैं भक्त की चोरी करके दुख पाउँगा । श्रीलक्ष्मण जी की सहज सरलता का स्मरण करता हुआ वापस लौट आया । उसने सब सामान देकर हृदय के दुष्ट भाव को खोलकर रख दिया और चरणो मे पडकर क्षमा मांगने लगा । भक्त के प्रताप से वह सच्चा संत बन गया। इस तरह संत वेष में अपार निष्ठा के कारण भगवान् ने श्री लक्ष्मण जी पर कृपा की।