पूज्यपाद श्री महीपति जी महाराज , प्रह्लाद महाराज , भगवान् बाबा और अन्य वारकरी महात्माओ के आशीर्वचन ।कृपया अपने नाम से प्रकाशित ना करे । http://www.bhaktamal.com ®
भगवान् श्री पंढरीनाथ के एक भक्त हुए है श्री कुर्मदास जी । कुर्मदास जी पैठण नामक गाँव में रहते थे । श्री कुर्मदास जी को बाल्यकाल से ही हाथ पाँव के पंजे नहीं थे और इस कारण से उन्हें अपने शरीर को किसी तरह घसीट कर चलना पड़ता था । जहाँ -तहाँ पडे रहते और जो कुछ मिल जाता खा लेते । मुख से राम कृष्ण हरी विट्ठल केशव जपते रहते ।
एक दिन पैठण में संत एकनाथ जी के दादाजी – पूज्य श्री भानुदास जी महाराज द्वारा हरिकथा हो रही थी । श्री भानुदास जी सिद्ध महात्मा थे , दूर दूर से प्रेमी जान और संत महात्मा उनकी कथा में आते थे । कुर्मदास पेटके बल रेंगते हुए हुए कथा-स्थल पर पहुंचे । उस समय संत श्री भानुदास जी पंढरपुर की आषाढी कार्तिकी यात्रा का माहात्म्य सुना रहे थे । कार्तिकी एकादशी मे अभी चार माह बाकी थे । कुर्मदास ने तत्क्षण ही निश्चय किया और पेटके बल रेंगते हुए चल पड़े पंढरपुर की दिशा में । यह है भगवत्प्रेम । सिद्ध वास्तविक महापुरुष का एक क्षण का संग भी कल्याण कर जाता है । कुर्मदास जी ने रेंगते रेंगे जाना शुरू कर दिया , दिनभर में वे एक कोस से अधिक नहीं रेंग पाते थे ।
रात को कही रुक जाते और जो कुछ अन्न-जल मिल जाता, ग्रहण कर लेते । इस तरह चार माह निरन्तर रेंगते हुए वे लहुल (लऊळ ) नामक स्थानपर पहुंचे । यहां से पंढरपुर सात कोस दूर था और दूसरे ही दिन एकादशी थी । किसी भी तरह कूर्मदास का वहाँ पहुंचना सम्भव नहीं था । शरीर छील गया था ,कई स्थानों पर जख्म हो गए थे , अब आगे जाना संभव नहीं हो पा रहा था । उन्हें समझ गया था की अब शरीर ज्यादा दिन रहेगा नहीं । पंढरपुर के रास्ते में झुण्ड-के-झुण्ड यात्री चले जा रहे है । जय विट्ठल, जय विट्ठल की गूंज और अपार जनसमूह । लेकिन कुर्मदास लाचार ।
क्या यह अभागा भगवान् के दर्शन से वञ्चित रहेगा । अथाह दर्द ! लेकिन दृढता हिमालय-सी अडिगा । उन्हे विचार आया – मै तो कलतक वहाँ भगवान के पास नहीं पहुँच सकता, लेकिन क्या भगवान् यहाँ नहीं आ सकते ? वे तो जो चाहे कर सकते हैं । प्रेम क्या नहीं का सकता ! उन्होने एक यात्री भक्त से विनती करके भगवान् के नाम चिट्ठी लिखवाई -हे भगवन ! यह बे-हाथ-पैर का आपका दास यहां पडा है , कलतक यह आपतक नहीं पहुँच सकता इसलिये आप ही दया करके यहाँ आकर मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करे । यह चिट्ठी लिख उन्होने उस यात्री के हाथ भगवान् के पास भेज देने की विनती की । दूसरे दिन एकादशी को भगवान् के दर्शन कर उस यात्री ने यह चिट्ठी भगवान के श्रीचरणो मे रख दी ।
इधर लहुल ग्राम में कूर्मदास भगवान् की प्रतीक्षा कर रहे थे । जोर-जोर से बड़े आर्तस्वर से पुकार रहे थे-भाग्वान्! कब दर्शन देगे ? अभीतक क्यों नहीं आये? मैं तो आपका दूँ न ! इस प्रकार अत्यन्त व्याकुल हो पुकारने लगे । नाथ कब आओगे ,कब आओगे की पुकार सुन स्वभाववश प्रेमाधीन भगवान् पण्डरीनाथ श्रीविट्ठल ज्ञानदेव, नामदेव और सावता माली के साथ कूर्मदास के सामने आ खड़े हुए । कूर्मदास धन्य हो गए । अपलक अपने विट्ठल को निहारते ही रह गये । चेत आनेपर किसीतरह भगवान् के चरण पकड लिये । तब से भगवान् विट्ठल जबतक कूर्मदास रहे, वही रहे ।
संतो और भगवान् के सानिध्य में ही महाभाग्यवान भक्तराज श्री कुर्मदास जी का शरीर छूट गया और वे विमान में श्री गोलोक पधारे । वहाँ जो विट्ठलनाथ का मन्दिर है वह इन्हीं कूर्मदास पर भगवान् का मूर्त अनुग्रह है , यह है भगवान का प्रेमानुबंध । मंदिर के बगल में पीछे ही एक कुँआ है ।आषाढ़ी यात्रा के समय कितना भी भयंकर अकाल पड़ा हो अथवा सुखा हो परंतु इस कुँए का पानी उस यात्रा के समय एकाएक भर जाता है । भगवान् के साथ श्री चंद्रभागा नदी भी कुर्मदास जी ली समाधी का दर्शन करने वहाँ आती है ऐसा कहा जाता है ।
औरंगज़ेब जैसा क्रुर शासक जिसने कई मंदिर तोड़ दिए ,उसी औरंगजेब ने कुर्मदास जी का मंदिर और समाधी स्थान बनवाया था यह एक महान् आश्चर्य है । संत कुर्मदास जी का भगवत्प्रेम सुनकर वह कठोर हृदयी क्रुर बादशाह भी द्रवित हो गया था और इसकारण से यह मंदिर और समाधी उसने निर्माण करवाई । यहां ब्राह्मण , क्षत्रिय और मुसलमान तीनो तरह ले लोग अलग अलग सेवा करते है ।वहाँ गाय के घी का दिया सतत प्रज्वलित रहता है ।
अत्यंत भावविभोर कर दिया
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