श्री हरिनाभ जी भगवत्कृपा प्राप्त सन्त थे । इनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था और इनकी सन्त सेवा में बडी ही निष्ठा थी । एक बार संन्यासियों की एक बडी मण्डली इनके गाँव में आयी, गाँव वालो ने उन्हें आपके यहाँ भेज दिया । संयोग से उस दिन श्री हरिनाभ जी के यहाँ तनिक भी सीधा सामान ( कच्चा अन्न ) नहीं था और न ही घर में रुपया-पैसा या आभूषण ही था, जिसे देकर दूकान से सौदा आ सकता ।
ऐसे में आपने अपनी विवाहयोग्य कन्या को एक सगोत्र ब्राह्मण के यहाँ गिरवी रख दिया कि पैसे की व्यवस्था होनेपर छुडा लेंगे । इस प्रकार पैसो की व्यवस्था करके आप सीधा सामान लाये और सन्त सेवा की । कुछ समय बाद जब इनके पास पैसे इकट्ठे हो गये तो आपने ब्राह्मण के पैसे लौटा दिये, परंतु फिर भी वह कन्या को वापस केरने में आनाकानी करता रहा ।
इनकी सन्त-सेवा के प्रति निष्ठा और ब्राहाण की कुटिलता ने संतो के परम आराध्य भगवत श्री हरिक को उद्वेलित कर दिया । वे स्वयं चुपचाप केन्या को आपके यहां पहुंचा आये । अब वह ब्राह्मण आप से झगडा -तकरार करने लगा । इसपर भगवान् ने रात्रि में स्वप्न में उससे कहा कि कन्या को मैंने उसके पिता के घर पहुंचाया है, यदि तुम इसके लिये तकरार करोगे तो मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा ।
अब ब्राह्मण को अपनी गलती और इनपर भगवत्कृपा का बोध हुआ । वह दूसरे दिन प्रात:काल ही आकर इनके चरणो में में गिरकर प्रार्थना करने लगा । इनके मन में उसके प्रति तनिक भी क्रोध नहीं था, अत: उसे क्षमा तो कर ही दिया, साथ ही उसे भी सन्त-सेवी बना दिया ।