१. पहली कथा :एक राजा बड़ा भक्त था । उसके यहाँ बहुत से साधु-सन्त आते रहते थे । राजा उनकी प्रेम से सेवा करता था । एक बार एक महान संत अपने साथियों समेत पधारे । राजा का सत्संग के कारण संतो से बडा प्रेम हो गया । वे सन्त राजा के यहाँ से नित्य ही चलने के लिये तैयार होते, परंतु राजा एक-न-एक बात ( उत्सव आदि) कहकर प्रार्थना करके उन्हे रोक लेता और कहता क्रि प्रभो ! आज रुक जाइये, कल चले जाइयेगा । इस प्रकार उनको एक वर्ष और कुछ मास बीत गये । एक दिन उन सन्तो ने निश्चय कर लिया कि अब यहां रुके हुए बहुत समय बीत गया ,कल हम अवश्य ही चले जायेंगे । राजाके रोकनेपर किसी भी प्रकर से नही रुकेंगे । यह जानकर राजा की आशा टूट गयी, वह इस प्रकार व्याकुल हुआ कि उसका शरीर छूटने लगा । रानी ने राजा से पूछकर सब जान लिया कि राजा सन्त वियोग से जीवित न रहेगा । तब उसने संतो को रोकने के लिये एक विचित्र उपाय किया । रानी ने अपने ही पुत्र को विष दे दिया; क्योकि सन्त तो स्वतन्त्र है, इन्हे कैसे रोककर रखा जाय ?
इसका और कोई उपाय नही है ,यही एक उपाय है । प्रात: काल होने से पहले ही रानी रो उठी, अन्य दासियाँ भी रोने लगी, राजपुत्र के मरने की बात फैल गयी । राजमहल मे कोलाहल मच गया । संत तो दया के सागर है, दुसरो के दुख से द्रवित हो जाते है । सन्तो ने सुना तो शीघ्र ही राजभवन मे प्रवेश किया और जाकर बालक को देखा । उसका शरीर विष के प्रभाव से नीला पड़ गया था, जो इस बातका साक्षी था कि बालक को विष दिया गया है । महात्माजी सिद्ध थे , उन्होने रानी से पूछा कि सत्य कहो, तुमने यह क्या किया ? रानी ने कहा – आप निश्चय ही चले जाना चाहते थे और हमारे नेत्रों को आपके दर्शनों की अभिलाषा है । आपको रोकने के लिये ही यह उपाय किया गया है ।
राजा और रानीकी संतो के चरणों मे ऐसी अद्भुत भक्ति को देखकर वे महात्मा जोरसे रोने लगे । संतो में राजा रानी की ऐसी प्रीति है कि केवल संतो को रोकने के लिए अपने पुत्र को ही विष दे दिया । संत जी का कण्ठ गद्गद हो गया, उन्हें भक्ति की इस विलक्षण रीति से भारी सुख हुआ । इसके बाद महात्माजी ने भगवान के गुणों का वर्णन किया और हरिनाम के प्रताप से सहज ही बालक को जीवित कर दिया । उन्हे वह स्थान अत्यन्त प्रिय लगा । अपने साथियों को- जो जाना चाहते थे, उन्हें विदा कर दिया और जो प्रेमरस मे मग्न संतजन थे, वे उनके साथ ही रह गये । इस घटना के बाद महात्माजी ने राजा से कहा कि अब यदि हमे आप मारकर भी भगायेंगे तो भी हम यहांसे न जायंगे ।
२. दूसरी कथा : महाराष्ट्र के राजा महीपतिराव जी परम भक्त थे । उनकी कन्या कन्हाड़ के राजा रामराय के साथ ब्याही थी, लेकिन घरके सभी लोग महा अभक्त थे । भक्तिमय वातावरण मे पलने वाली उस राजपुत्री का मन घबडाने लगा । अन्त मे जब उसे कोई उपाय नही सूझा तो उसने अपनी एक दासी से कह दिया कि इस नगर मे जब कभी भगवान के प्यारे संत आये तो मुझे बताना ।
एक दिन दैवयोग से उस नगर मे संतो की ( संत श्री ज्ञानदेवजी की) जमात आयी । उनके आनेका समाचार दासी ने उस राजपुत्री को दिया । अब उस भक्ता से सन्त अदर्शन कैसे सहन होता । उसने अपने पुत्र को विष दे दिया । वह मर गया, अब वह राजकन्या तथा दूसरे घरके लोग रोने तथा विलाप करने लगे । तब उस भक्ता ने व्याकुल होकर उन लोगों से कहा कि अब इसके जीवित होने का एक ही उपाय है, यदि वह किया जाय तो पुत्र अवश्य जीवित हो सकता है । वह चाहती थी कि किसी तरह संत जान यहां पधारे और इन अभक्त लोगो को संतो का महात्म्या पता लगे । रोते-रोते परिवार के सब लोगो ने कहा – जो भी उपाय बताओगी, उसे हम करेंगे । तब उस बाई ने कहा कि संतो को बुला लाइये ।
उन अभक्त लोगों ने पूछा कि सन्त कैसे होते है ? इसपर भक्ता ने कहा कि यह मेरे पिता के घर जो दासी साथ आई है , यह मेरे पिता के घर मे सन्तो को देख चुकी है । यह सब जानती हैंकि संत कैसे होते है, कहाँ मिलेंगे आदि सब बातों को यह बताएगी । पूछनेपर दासी ने कहा कि आज इस नगर मे कुछ सन्त पधारे है और अमुक स्थानपर ठहरे है । वह दासी राजा को साथ लेकर चली और सन्तो से बोलना सिखा दिया । दासी ने राजा से कहा कि संतो को देखते ही पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनके चरणों को पकड लीजियेगा । राजा ने दासी के कथनानुसार ही कार्य
किया । शोकवश राजा की आँखो से आँसुओं की धारा बह रही थी, परंतु उस समय ऐसा लगा कि मानो ये सन्त प्रेमवश रो रहे है । सहज विश्वासी और कोमल हृदय उन सन्तो ने भी विश्वास किया कि ये लोग प्रेम से रुदन कर रहे है । राजाने प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरे घर पधारकर उसे पवित्र कीजिये । राजा की विनती स्वीकारकर सन्तजन प्रसन्नतापूर्वक उसके साथ चले । दासी ने आगे ही आकर भक्ता रानी को साधुओं के शुभागमन की सूचना दे दी । वह रानी पौरी मे आकर खडी हो गयी । संतो को देखते ही वह उनके चरणों मे गिर पडी और प्रेमवश गद्गद हो गयी । आँखों मे आँसू भरकर धीरे से बोली – आप लोग मेरे पिता-माता को जानते ही होंगे, क्योंकि वे बड़े सन्तसेवी है । आपलोगों का दर्शन पाकर आज ऐसा मन मे आता है कि अपने प्राणों को आपके श्रीचरणों मे न्यौछावर कर दूँ । संतो ने पहचान लिया कि यह भक्त राजा महिपतिराव जी की पुत्री है।
उस भक्ता रानी की अति विशेष प्रीति देखकर सन्तजन अति प्रसन्न हो गये और बोले कि तुमने जो प्रतिज्ञा क्री है, वह पूरी होगी । राजमहल मे जाकर सन्तो ने मरे हुए बालक को देखकर जान लिया कि इसे निश्चय ही विष दिया गया है । उन्होंने भगवान का चरणामृत उसके मुख मे डाला । वह बालक तुरंत जीवित हो गया । इस विलक्षण चमत्कार को देखते ही राजा एवं उसके परिवार के सभी लोग जो भक्ति से विमुख थे, सभी ने सन्तो के चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की कि हमलोग आपकी शरण मे है । संतो का सामर्थ्य क्या है यह उन सब को पता लग गया । बार बार चरणों मे गिरकर प्रार्थना की तब सन्तो ने उन सभी को दीक्षा देकर शिष्य बनाया । जो लोग पहले यह तक नही जानते थे कि संत कैसे होते है- कैसे दिखते है ,उन लोगों ने वैष्णव बनकर सन्तो की ऐसे विलक्षण सेवा करना आरम्भ कर दिया, जिसे देखकर लोग प्रेमविभोर हो जाते थे।