श्वपच वाल्मीकि नामक एक भगवान् के बड़े भारी भक्त थे, वे अपनी भक्ति को गुप्त ही रखते थे। एक बार की बात है, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमेंइतने ऋषि-महर्षि पधारे कि सम्पूर्ण यज्ञ स्थल भर गया भगवान् श्रीकृष्ण ने वहां एक शंख स्थापित किया और कहा कि यज्ञ के सांगोपांग पूर्ण हो जाने पर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा। यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञ में अभी कुछ त्रुटि है, यज्ञ पूरा नही हुआ। वही बात हुई। पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मण भोजन, दान-दक्षिणादि सभी कर्म विधिसमेत सम्पन्न हो गये, परंतु वह शंख नहीं बजा। तब सबको बड़ी चिन्ता हुई कि इतने श्रम के बाद भी यज्ञ पूर्ण नहीं हुआ। सभी लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास आकर कहा कि प्रभो ! आप कृपा करके बताइये कि यज्ञ में कौन-सी कमी रह गयी है। भगवान् श्री कृष्ण बोले-शंख न बजने का रहस्य सुनिये –
यद्यपि ऋषियों के समूह से चारों दिशाएँ, सम्पूर्ण भूमि भर गयी है और सभी ने भोजन किया है, परंतु किसी रसिक वैष्णव सन्त ने भोजन नहीं किया है,यदि आप लोग यह कहें कि इन ऋषियोंमें क्या कोई भक्त नहीं है तो मैं ‘नही ’ कैसे कहूँ, अवश्य इन ऋषियों में बहुत उत्तम-उत्तम भक्त हैं, फिर भी मेरे हृदय की एक गुप्त बात यह है कि मैं सर्वश्रेष्ठ रसिक वैष्णव भक्त उसे मानता हूँ, जिसे अपनी जाति, विद्या, ज्ञान आदि का अहंकार बिल्कुल न हो और अपने जो दासों का दास मानता हो, यदि यज्ञ पूर्ण करने की इच्छा है तो ऐसे भक्त को लाकर जिमाइये।
भगवान् की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने कहा – प्रभो ! सत्य है, पर ऐसा भगवद्भक्त हमारे नगर के आस-पास कहीं भी दिखायी नहीं देता है। जिसमें अहंकार की गन्ध न हो-ऐसा भक्त तो किसी दूसरे लोक में भले ही मिले। भगवान् ने कहा – नहीं, तुम्हारे नगर में ही रहता है। दिन-रात, प्रातः-सायं तुम्हारे यहाँ आता-जाता भी है, पर उस कोई जानता नहीं है और वह स्वयं अपने को प्रकट भी नहीं करता है। यह सुनकर सभी आश्चर्य से चैंक उठे और बोले-प्रभो ! कृपया शीघ्र ही बताइये, उनका क्या नाम है और कहाँ स्थान है? जहाँ जाकर हम उनका दर्शन करके अपने को सौभाग्यशाली बनाये।भगवान् ने कहा – श्वपच भक्त वाल्मीकि के घर को चले जाओ, वे सर्वविकार रहित सच्चे साधु हैं।
अर्जुन और भीमसेन दोनों ही भक्त वाल्मीकि जी को निमन्त्रण देने के लिये उनके घर जाने को तैयार हुए। जब भगवान् ने उन्हें सतर्क करते हुए हृदय की बात खोलकर कही- जाते तो हो पर सावधान रहना, भक्तों की भक्ति का भाव अत्यन्त दुर्लभ और गम्भीर है, उनको देखकर मन में किसी प्रकार का विकार न लाना, अन्यथा तुम्हारी भक्ति में दोष आ जायगा। दोनों ने भक्त वाल्मीकि के घर पहुँचकर उसके चारों ओर घूमकर उसकी प्रदक्षिणा की। आनन्द से झूमते हुए पृथ्वी पर पड़कर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया । भीतर जाकर देखा तो उनका उपासना गृह बड़ा सुन्दर था। वाल्मीकिजी ने जब दोनों राज-राजाओं को आया देख तो उन्होंने सब काम छोड़ दिये। लज्जा एवं संकोच वश काँपने लगे, उनका मन विह्नल हो गया। अर्जुन और भीमसेन ने सविनय निवेदन किया – भक्तवर ! कल आप हमारे घर पर पधारिये और वहाँ अपनी जूठन गिराकर हमारे पापग्रहों को दूर कीजिये। हम सबको परम भाग्यशाली बनाइये।
दोनों को निमन्त्रण देते तथा अपनी बड़ाई करते हुए सुनकर वाल्मीकि जी कहने लगे – अजी ! हम तो सदा से आपकी जूठन उठाते हैं और आपके द्वार पर झाडू लगाते हैं। मेरा निमन्त्रण कैसा? पहले आप भोग भोजन कीजियेगा, फिर पीछे से हमें अपनी जूठन दीजियेगा। अर्जुन-भीमसेन ने कहा – आप यह क्या कह रहे हैं? पहले आप भोजन कीजियेगा, फिर पीछे से हमें कराइयेगा। बिना आपको खिलाये हम लोग नहीं खायेंगे। दूसरी बात भूलकर भी मन में न सोचिये। वाल्मीकि जी ने कहा-बहुत अच्छी बात, यदि आपके मन में ऐसा है तो ऐसा ही होगा।
अर्जुन और भीमसेन ने लौटकर राजा युधिष्ठिर से वाल्मीकि की सब बात कही, सुनकर युधिष्ठिर को श्वपच भक्त के प्रति बड़ा प्रेम हुआ। भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अच्छी प्रकार से सिखाया कि तुम सभी प्रकार के षट्रस व्यंजनों को अच्छी प्रकार से बनाओ। तुम्हारे हाथों की सफलता आज इसी में है कि भक्त के लिये सुन्दर रसोई तैयार करो। रसोई तैयार हो चुकने पर राजा युधिष्ठिर जाकर वाल्मीकि को लिवा लाये। उन्होंने कहा कि हमें बाहर ही बैठाकर भोजन करा दो। श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा – हे युधिष्ठिर ! ये तो तुम्हारे भाई हैं, इन्हें सादर गोद में उठाकर स्वयं ले आओ। इस प्रकार उन्हें पाकशाला में लाकर बैठाया गया और उनके सामने सभी प्रकार के व्यंजन परोसे गये। रसमय प्रसाद का कौर लेते ही शंख बज उठा, परंतु थोड़ी देर बजकर फिर बन्द हो गया, तब भगवान् ने शंख को एक छड़ी लगायी।
भगवान् ने शंख से पूछा – तुम भक्त के भोजन करने पर ठीक से क्यों नहीं बज रहे हो? घबड़ाकर शंख बोला – आप द्रौपदी के पास जाकर उनसे पूछिये, आप मन से यह मान लीजिये कि मेरा कुछ भी दोष नहीं है। जब द्रौपदी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि शंख का कथन सत्य है। भक्त जी खट्टे-मीठे आदि रसों के सभी व्यंजनों को एक में मिलाकर खा रहे हैं, इससे मेरी रसोई करने की चतुरता धूल में मिल गयी। अपनी पाकविद्या का निरादर देखकर मेरे मन में यह भाव आया कि आखिर हैं तो ये श्वपच जाति के ही, ये भला व्यंजनों का स्वाद लेना क्या जाने? तब भगवान् ने सब पदार्थों को एक में मिलाकर खाने का कारण पूछा।
भक्त श्वपच वाल्मीकि ने कहा कि इनका भोग तो आप पहले ही लगा चुके है, अतः पदार्थ बुद्धि से अलग-अलग स्वाद कैसे लूँ? पदार्थ तो एक के बाद दूसरे रुचिकर और अरुचिकर लगेंगे। फिर इसमें प्रसाद बुद्धि कहां रहेगी? मै तो प्रसाद का सेवन कर रहा हूँ, व्यंजनों को नहीं खा रहा हूँ। यह सुनकर भक्त वाल्मीकि में द्रौपदी का अपार सद्भाव हुआ। शंख जोरों से बजने लगा। लोग भक्त की जय-जयकार करने लगे। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण हुआ और भक्त वाल्मीकि जी की महिमा का सबको पता चल गया।
uprokt sbhi bhkto ki lila srvniy ebm atmbibhor krne bali ebm grahy yogy hai,sbhi ko sdar nmn
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ye sabhi kathaye on line kese prapt ho sakti h prabhu,bataye.
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जी ऑनलाइन ही तो प्राप्त हो रही है यहां साइट इसिलए बनाई गई है
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