श्री गोवर्धनधारी भगवान् श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर श्री कृष्णदास को अपने नाम मे हिस्सा दिया । श्री कृष्ण दासजी श्री गुरु वल्लभाचार्य जी के द्वारा दिये गये भजन भाव के समुद्र एवं समस्त शुभ गुणों की खानि थे । आपके द्वारा रची गयी कविताएं बडी ही अनोखी एवं काव्यदोष से रहित होती थी । आप ठाकुर श्री श्रीनाथजी की सेवायें बड़े चतुर थे । श्री गिरिधर गोपाल जी के मंगलमय सुयश से विभूषित आपकी वाणी की विद्वान जन भी सराहना करते थे । आप श्री व्रज की रज ( धूल ) को अपना परम आराध्य मानते थे । चित्त मे उसी को सर्वस्व मानकर शरीर मे एवं सिर-माथेपर धारण करते थे तथा चित्त मे चिन्तन भी करते थे । आप सदा – सर्वदा श्री हरिदासवर्य श्री गोवर्धन जी के समीप बने रहते थे एवं सदा बड़े-बड़े सन्तो के सानिध्य मे रहते थे । आपने श्री राधा-माधव युगल की सेवा का दृढ व्रत ले रखा था ।
१. जलेबियों का भोग –
श्री कृष्णदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे । महाप्रभु ने ठाकुर श्री श्रीनाथजी की सेवा का सम्पूर्ण भार इन्हे सौपा था । एक बार आप श्री ठाकुरजी के सेवाकार्य के लिये दिल्ली गये हुए थे । वहाँ बाजार मे कडाही से निकलती हुई गरमागरम जलेबियों को देखकर , जैसे ही उसकी सुवास अंदर गयी वैसे ही आपने सोचा कि यदि इस जलेबी को हमारे श्रीनाथ जी पाते , तो उन्हें कैसा अद्भुत आनंद आता । उस बाजार में खड़े खड़े मानसी-सेवा मे (मन ही मन) ही कृष्णदास जी उन जलेबियों को स्वर्ण थाल में रखकर श्री श्रीनाथजी को भोग लगाया, भाववश्य भगवान ने उसे स्वीकार कर लिया ।
वृन्दावन के एक संत कहा करते थे – जब संसार की कोई उत्कृष्ट वस्तु , उत्कृष्ट खाद्य सामग्री को जीव देखता है तो उसके मन मे दो भाव ही आ सकते है – १. पहला की इसका संग्रह मेरे पास होना चाहिए, इस वस्तु का मैं भोग कर लूं । २. दूसरा की यदि यह वस्तु मेरे प्रभु की सेवा में उपस्थित हो जाये तो उन्हें कैसा सुख होगा । संत के हृदय में सदा यह दूसरा भाव ही आता है ।
उधर जब आरती करने से पहले मंदिर मे गुसाई जी ने भोग उसारा तो उन्होंने जो देखा उससे उन्हें अद्भुत आश्चर्य हुआ । श्रीनाथ जी ने विविध भोग सामग्रियों को एक ओर कर दिया है और जलेबीयों से भरा एक स्वर्ण का थाल मध्य में चमचमा रहा है । श्रीनाथ जी मंद मंद मुसकरा रहे थे और उनके हाथ में भी जलेबी प्रत्यक्ष मौजूद पायी गयी । गुसाई जी समझ गए कि आज किसी भक्त ने भाव के बल से इस सेवा का अधिकार प्राप्त कर लिया है ।
२. वेश्या पर कृपा –
एक बार आप आगरा गये थे । वहाँ एक दिन संध्या के समय कृष्णदास जी के कान में अत्यंत मधुर स्वर आया । जैसे जैसे उस स्वर का अनुसरण करते करते उसकी दिशा में चलने लगे । जैसे ही कुछ निकट आये तो घुंघरुओं की ध्वनि भी आने लगी । वहां उन्होंने देखा कि एक वेश्या अत्यन्त मधुर राग-स्वर से गायन कर रही है और नृत्य करके संसारी पुरुषों को रिझा रही है ।
कृष्ण दास जी ने सोचा कि यह वेश्या तो गान और नृत्य में बड़ी पारंगत है , बड़ा सुंदर रूप पाया है जिसने । परंतु इन संसारी पुरुषों को रिझाने में लगी है – इसे तो मेरे प्रभु की सेवा में होना चाहिए । श्री कृष्णदास जी ने उस वेश्या को कुछ स्वर्ण अशर्फियाँ (धन) दिए और कहा कि अमुक स्थान और हमसे मिलने आना । वैश्या ने सोच की केवल मिलने के लिये जो व्यक्ति इतना धन दे गया , यदि उसे रिझा लुंगी तो न जाने कितना धन प्राप्त होगा । लोभवश वह वेश्या श्रृंगार करके समय से पहले वहाँ पहुंच गई । श्री कृष्णदास जी ने उससे कहा कि मैने तुम्हे अपने लिए यहां नही बुलाया है , मैं तो अपने स्वामी का एक तुच्छ सा दास हूं – तुम्हे तो मेरे स्वामी को प्रसन्न करना है ।
वैश्या ने सोचा कि जिसके दास का ऐसा वैभव है , उसके स्वामी का कैसा वैभव होगा । कृष्णदास जी ने पूछा- क्या तू हमारे स्वामी के यहाँ चलकर गाना सुना सकती है ? वह गोवर्धन में निवास करते है। मै सत्य कहता हूं कि यदि तुमने उन्हें रिझा लिया तब तुम्हे जीवन मे किसी को रिझाने की आवश्यकता नही होगी । उस धन की लोभी वैश्या ने तत्काल इनके साथ चलने की स्वीकृति दे दी । फिर तो ये भी लोक-लाज को सर्वथा दूरकर उसे साथ लेकर चल दिये । आगरा से अपनी बैलगाड़ी मे वैश्या को साथ लेकर गिवर्धन की ओर चल दिये ।
पूरे मार्ग में श्रीकृष्ण दास जी की बहुत अधिक निंदा होने लगी । लोगो ने कृष्णदास जी से कहा कि आप जैसे आचार्य यह कैसा आचरण कर रहे है ? आचार्य जैसा करता है, समाज भी उसी का अनुसरण करता है । अनेको प्रकार से कृष्णदास जी की निंदा हुई परंतु उनके मन मे तो यही भावना थी कि किसी तरह यह स्त्री मेरे लालजी की सेवा मे पहुंच जाए । संत को क्या सम्मान और क्या अपमान ?
जीव का स्वभाव ऐसा है कि कोई उसके लिए जीवन भर हजारो सहयोग करने वाले सत्कर्म करे परंतु एक बार अपराध बन जाये तो वह उस अपराध को याद रखता है , हजारो सहयोगों यो याद नही रखता । परंतु प्रभु का स्वभाव ऐसा है कि राई के दाने के बराबर ( थोड़ा)भी कोई उनका भजन करे तो प्रभु उस जीव को अपना मानकर मेरु समान (बहुत अधिक मानते है ) और समुद्र के समान किये गए अवगुणों की ओर ध्यान नही देते । संतो ने वाणी में कहा है –
अवगुण करे समुद्र सम गिनत ना अपनो
जान । राई के सम भजन को मानत मेरू समान ।।
संत अकारण कृपालु होते है – वो कब किसपर क्यों कृपा करते है यह समझना अत्यंत कठिन है । जिसको संत अपना मान लेते है, उसे भगवान को अपनाना ही पड़ता है भले ही वह जीव कैसा भी हो। श्री कृष्णदास जी उस वेश्या को अंपने संग श्री श्रीनाथजी के मंदिर मे लिवा लाये और बोले – आजतक तुमने संसारी लोगों को रिझाया है, अब हमरे श्री लालजी को रिझाओ । देखो, ये कैसे रिझवार है । जैसे ही मंदिर के पट खुले और वेश्या ने श्री श्रीनाथजी का दिव्य दर्शन किया वैसे ही प्रभु थोड़ा सा मुसकरा दिए – उस वेश्या के हृदय मे तत्काल प्रेम प्रकट हो गया । वह प्रेममत वाली हो गयी और स्वर साधकर उसने आलाप किया । श्री कृष्णदास जी ने पूछा – क्या तुमने मेरे लालजी को अच्छी प्रकार देखा ? उस वेश्या ने कहा – हाँ, मैने देखा, दर्शन मात्र से ही हृदय को अत्यन्त अच्छे लग रहे है ।
वेश्या ने अपने नृत्य, गान, तान, भावभरी मुसकान और नेत्रों की चितवन से श्री नाथजी को एकदम रिझा लिया । उसने एकदम तदाकार होकर नृत्य गान किया । प्रेमाधिक्य के कारण मंदिर में ही उसका शरीर छूट गया । श्री ठाकुरजी ने उसके जीवात्मा को अंगीकार कर लिया । वेश्या ने अपने हृदय मे प्रेमभाव भर रखा था और भगवान् भी प्रेम के भूखे है, अत: उसकी जाति भक्ति या कर्मपर दृष्टि न देकर उसके हृदय के प्रेम को ही अपने हृदय मे धारणकर अपना लिया । एक घड़ी के सत्संग के प्रभाव से उस वेश्या का शरीर श्रीनाथ जी के निज मंदिर में संतो की उपस्थिति मे छूट गया । बाबा श्री तुलसीदास कहते है –
एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साधु की , हरे कोटि अपराध।।
३. श्री सूरदास जी एवं श्री कृष्णदास जी –
एक बार श्री कृष्णदास जी श्री सूरदास जी से मिलने आये । पद-रचना के प्रसंग मे श्री सूरदास जी ने विनोद मे कहा कि आप तो कविता करने मे बड़े प्रवीण है, अत: कोई ऐसा पद बनाकर गाइये, जिसमे मेरे पदों की छाया न हो । श्री कृष्णदास जी ने पाँच-सात पद गाये । श्री सूरदास जी उन पदों को सुनकर मुसकराने लगे तथा पूछनेपर बताया कि आपके इस पद मे हमारे इस पद की छाया है । श्री कृष्णदास जी बडे संकुचित हुए । श्री सूरदासजी ने कहा कि अच्छा, कोई बात नही है, कल प्रात: काल कोई नया पद बनाकर आकर मुझे सुनाना । अपने निवास-स्थानपर आकर श्री कृष्णदास जी को भारी सोच हुआ क्योंकि कोई भी भाव श्री सूरदास जी से अछूता नही मिल रहा था ।
श्री कृष्णदास जी की सोच का निवारण करने के लिये प्रभुने स्वयं एक अत्यन्त सुन्दर पद बनाकर श्री कृष्णदास जी की शय्यापर रख दिया । जब चिन्ता मे निमग्न श्री कृष्णदास जी शय्यापर पौढ़ने गये तो सिरहाने श्री प्रभु के करकमल से लिखा हुआ पद पाया । फिर क्या था, प्रात:काल होते ही श्री कृष्णदास जी पुन: श्री सूरदास जी के पास आये और उस पद को सुनाया । सुनकर श्री सूरदास जी बडे सुखी हुए, साथ ही यह जानकर कि यह पद श्री कृष्णदास जी द्वारा रचित नही हो सकता है , इसे तो श्री श्रीनाथजी ने बनाया है ,श्री सूरदास जी ने इसे श्री ठाकुर जी का पक्षपात बताया । श्री ठाकुर जी के इस पक्षपातपर श्री सूरदास जी रूठ गये । उन्होंने मंदिर मे कीर्तन की सेवा बन्द कर दी, तब श्री ठाकुर जी ने उन्हें मनाया । फिर तो भक्त और भगवान के हृदय मे परस्पर प्रेम रंग छा गया ।
४. श्री गोलोक धाम गमन लीला –
अन्त समय मे श्री कृष्णदास जी फिसलकर कुएं मे गिर गये और उसी मे इनका शरीर छूट गया । यद्यपि भजन के प्रताप से आपको तत्काल दिव्य देह की प्राप्ति हो गयी, परंतु लोगों के मन मे अकाल मृत्यु की आशंका थी । इस आशंका से रसिकजनों के मन मे दुख हुआ । सुजान शिरोमणि श्री श्रीनाथ जी ने भक्तों के हार्दिक दु:ख को जानकर उसे दूर करने के लिये तथा लोगों की आशंका का निवारण करने के लिये श्री कृष्णदास जी का परम सुखदायी ग्वाल स्वरूप लोगों को प्रत्यक्ष दिखला दिया । शरीर छूटने के अगले दिन ही श्री गोवर्धन जी की तलहटी मे कुछ व्रजवासियों को दिव्यदेह धारी श्री कृष्णदास जी का दर्शन हुआ ।
श्री कृष्णदास जी ने व्रजवासियों से कहा कि आप लोग चिंता मत करो, मुझे लेने स्वयं श्री बलदाऊ जी आये है और आगे श्री बलदाऊ जी गये है, उन्ही के साथ पीछे पीछे मै भी जा गोलोक धाम को रहा हूँ । आपलोग श्री गुसाई विट्ठलनाथ जी से मेरा प्रणाम कह देना । तदुपरान्त श्री कृष्णदास जी ने पृथ्वी मे गडे हुए धन का पता बताया, जो इन्होंने पूर्व शरीर से सुरक्षार्थ पृथ्वी गाड़ रखा था । व्रज वासियों ने आकर श्री कृष्णदास जी का वृत्तांत गुसाई श्री विट्ठलनाथ जी से निवेदन किया, पुन: निर्दिष्ट स्थान खोदा गया तो वहां धन भी मिला जो गुसाई जी ने प्रभु और संतो की सेवा में लगा दिया । इस घटना से सब को विश्वास हो गया कि निश्चय ही इन व्रजवासियों को श्री कृष्णदास जी मिले थे तथा दूसरी बात यह कि श्री कृष्णदास जी की अधोगति नही हुई, वे भगवान की नित्यलीला मे सम्मिलित हो गये ।