श्री जापू जी परम प्रेमी भगवद्भक्त थे । इनके श्रीमुख से सदा भगवान का नाम सीताराम सीताराम का जाप होता रहता अतः इनका नाम श्री जापू जी पड गया । नित्य ही सन्त-भगवन्त-सेवा एवं उत्सवों की धूम आपके यहाँ मची रहती थी । इन्होंने अपने समस्त धन संतो की सेवा में लगा दिया परंतु कुछ काल मे सब धन व्यय हो गया । अपना सर्वस्व व्यय करने के बाद आप सन्त सेवा के निमित्त राहजनी (लूट, डकैती) करने लगे । एक बार आपके यहाँ संतो की मंडली पधारी और घर पर ना धन था और ना कुछ अन्न । पास ही में एक सुनार रहता था जो सोने में मिलावट आदि करके बेचता था और वह सुनार कभी शुभ कार्य मे धन नही व्यय करता था । आपने उस सुनार को लूटा और आकर संतो को भोजन कराया और वस्त्रादि भी दिया । सुनार ने आपके घरपर आकर झगडा किया । झगडा बढते देखकर राजा के सिपाहियों ने दोनों को पकड़कर राजा के सामने उपस्थित किया ।
राजाने दोनों को कारागार मे डाल दिया । श्री जापूजी को अपनी चिन्ता न थी । पर घर मे सन्त जन् विराजमान है ,उनकी सेवा से वंचित होने से जापूजी चिन्तित हुए । रात को जापूजी सतत सीताराम सीताराम का जाप कर रहे थे । राजा से स्वप्न मे भगवान ने कहा कि – तूने मेरे भक्त जापूजी को कैदखाने मे बन्द कर रखा है । उसे शीघ्र छोड़ दे, नहीं तो तेरा कल्याण नही होगा । सबेरा होते ही राजा ने श्री जापूजी को कारागार से मुक्त करने का आदेश दिया और आपको निरपराध समझा । सुनार को अपराधी समझकर उसको नहीं छोडा । श्री जापूजी ने कहा कि हम अकेले घर नही जाएंगे, पहले तुम इस सुनार को भी मुक्त करो । सुनार के बिना अकेले कैद से मुक्त होना स्वीकार नही किया । सुनार ने सोचा कि अवश्य ही जापूजी के पास कोई शक्ति है। लगता है कि जापूजी रात्रि में जो मंत्र (सीताराम) जप रहे थे, उसी के प्रभाव से राजा ने इन्हें मुक्त करने का आदेश दिया और हमे नही मुक्त कराया । अगली रात जापूजी के साथ सुनार भी नाम का जप करने लगा ।
दूसरी रात को भगवान ने पुन: राजा को स्वप्न दिया और कहा कि जैसा भक्त जापूजी कहते है, वैसा ही करो । राजा ने दोनों को छोड़ दिया । सुनार ने मन मे विचार किया कि यह संत तो बड़े दयालु है – यदि चाहते तो अकेले कैदखाने से निकल जाते परंतु इन्होंने ऐसा नही किया । सुनार को विश्वास हो गया कि भगवान के नाम के बल पर मैं इस छोटे से बंधन से मुक्त हुआ – तो संसार के इतने बड़े बड़हन से भी अवश्य ही मुक्त हो जाऊंगा । उसने निश्चय किया कि अब इस नाम का त्याग अब मैं कभी नही करूँगा । ऊपर से उसके धन का अन्न संतो के पेट मे जाने से भी उसकी बुद्धि अति निर्मल हो गयी । एक क्षण भी सच्चे संत का संग हो तो जीवन परिवर्तित हो जाता है।
बाबा श्री तुलसीदास ने कहा है –
एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध ।
तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध ।।
कबीर दास जी कहते है –
कबिरा संगत साधु की ज्यों गंधी का वास ।
जो कछु गंधी देहि नहिं तो भी वास सुवास ।।
अर्थात संतो का संग, इत्र (सुगंध) बेचने वाले की संगत के बराबर है । इत्र बेचने वाला चाहे कुछ न दे तो भी उसके समीप जाने पर खुशबू मिलती है । उसी प्रकार संत चाहे मुख से कुछ भी न बोले तो भी उनके समीप जाने (संग करने) पर मन पवित्र होता है (मन कि दुर्गन्ध नष्ट होती है )।
राजा ने जापू जी को सारी घटना सुना दी और पूछा कि आप जैसे भगवान के भक्त ने सुनार का धन आखिर क्यो लूटा ? जापूजी ने सच्ची घटना बता दी और साधु-सेवा की महिमा बतायी । किसी भी तीर्थ का सेवन करने से पहले ,किसी भी पुराण का श्रवण करने से पहले उसका महात्म्य श्रवण करने से उसमे श्रद्धा अधिक हो जाती है । इसी तरह जापू जी ने संत सेवा की कुछ सच्ची घटनाएं और संत सेवा का बहुत महात्म्य सुनाया । इससे राजा और सुनार दोनों के हृदय मे भगवद्गक्ति एवं सन्त सेवा की निष्ठा दृढ हुई । भगवान् जापूजी की सेवा से सन्तुष्ट हो गये और स्वप्न में जापू जी से कहा कि अब आपको चोरी करने की आवश्यकता नही है , पास ही में जमीन मे गडे धन का पता भगवान ने जापू को बताया। उसी धन से भगवान ने जापू जी सन्त सेवा करने का आदेश दिया । राजा भी और सुनार भी जीवनपर्यन्त निष्ठापूर्वक संत सेवा में लगे रहे ।
श्री राम वल्लभो विजयते
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