श्री माधवदास जी के सुपुत्र श्री भगवन्तमुदित जी ने रसिक भक्तों से समर्थित तुलसीकंठी और तिलक धारणकर अपने इष्टदेव श्री राधाकृष्ण की नित्य नियम से सेवा की तथा उदार भगवान के परमोदार सुयश का अपनी वाणी से वर्णन करके उसके रस का आस्वादन किया । श्री कुंजबिहारिणी कुंजबिहारी की नित्य निकुंज लीला इनके हृदय मे सर्वदा प्रकाशित रहती थी । दम्पति श्री राधाकृष्ण का जो पारस्परिक सहज स्नेह और प्रीतिकी जो अन्तिम सीमा है, उससे आपका हृदय प्रकाशित था । अनन्य भाव से सेवा करने की जो रसमयी रीति है, उसीको आपने उत्तम से उत्तम मार्ग मानकर अपनाया, उसीपर चले । भक्ति से भिन्न लौकिक -वैदिक -विधि- निषेधों का सहारा छोड़कर आपका हृदय विशेषकर श्री राधाकृष्ण के परमानुराग मे सराबोर रहता था।
श्री भगवन्तमुदित जी परमरसिक सन्त थे । आप आगरा के सूबेदार नबाब शुजाउल्युल्क के दीवान थे । कोई भी ब्राह्मण, गोसाई, साधु या गृहस्थ ब्रजवासी जब आपके यहाँ पहुँच जाता तो आप अन्न, धन और वस्त्र आदि देकर उसे प्रसन्न करते थे; क्योंकि व्रजबासियों के प्रेम मे इनकी बुद्धि रम गयी थी । आपके गुरुदेव का नाम श्री हरिदासजी था । ये श्रीवृन्दावन के ठाकुर श्री गोविन्ददेव जी मन्दिर वे अधिकारी थे । इन्होंने व्रजवासियों के मुख से श्री भगवन्तमुदित जी की बडी प्रशंसा सुनी तो इनके मन मे आया कि हम भी आगरा जाकर (शिष्य) भक्त की भक्ति देखें ।
श्री भगवन्तमुदित जी ने सुना कि श्रीगुरुदेव आ रहे है तो इन्हें इतनी प्रसन्नता हुई कि ये अपने अंगो मे फूले नही समाये । ये अपनी स्त्री से बोले कि कहो, श्री गुरु-चरणो मे क्या भेंट देनी चाहिये ? स्त्री ने कहा – हम दोनों एक-एक धोती पहन ले और शेष सब घर द्वार, कोठार- भण्डार, चल अचल सम्पत्ति श्रीगुरुदेव को समर्पण कर दें और हम दोनों वृन्दावन मे चलकर भजन करे । स्त्री की ऐसी बात सुनकर श्री भगवन्तमुदित जी उसपर बहुत प्रसन्न हुए और बोले- सच्ची गुरु भक्ति करना तो तुम ही जानती हो, यह तुम्हारी सम्मति हमको अत्यन्त प्रिय लगी है । ऐसे कहते हुए उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे । गुरुदेव रात्रि मे बाहर द्वारपर बैठे सुन रहे थे । सर्वस्व समर्पण की बात गोस्वामी श्री हरिदासजी ने सुन ली और उन्होंने जान लिया कि ये सर्वस्व-त्याग करके विरक्त बनना चाहते है, जिसका अभी योग (उचित समय) नही है, अत: आप उसी समय बिना श्री भगवन्तमुदितजी से मिले ही परिचित व्यक्ति को बताकर लौटकर श्रीवृन्दावन को चले आये और इनके प्रेम भरे त्याग के प्रणपर बहुत ही सन्तुष्ट हुए ।
श्री भगवन्तमुदित जी को जब यह मालूम हुआ कि श्रीगुरुदेव आये और वापस चले गये तो आपका उत्साह नष्ट हो गया । हृदय मे अपार पश्चात्ताप हुआ । फिर आपने गुरुदेव के दर्शन करने का विचार किया और नवाब से आज्ञा माँगकर श्री वृन्दावन आये । गुरुदेव के दर्शनकर सुखी हुए । बहुत से लीला- पदों की रचना की । आपका श्री रसिक अनन्यमाल नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इस प्रकार आपने अनन्य प्रेमका एकरस निर्वाह किया । गुरुदेव से आज्ञा लेकर आगरा को लौट गये । वहाँ किसी कारणवश कई ब्रजवासी चोरो ने आपके घर मे ही चोरी कर ली, पर इससे आपने जरा भी मन मे दुख न माना; क्योंकि आपका मन भगवान की भक्ति मे सराबोर था और दृष्टि मे श्री वृन्दावन-बिहारिणी-बिहारी जी समाये हुए थे । वास्तव मे आप बड़े ही भाग्यशाली और प्रेमी सन्त थे । संसार मे आपका भगवत्प्रेम प्रसिद्ध था । श्री भगवन्तमुदित जी के पिता श्री माधवदास जी उच्च कोटि के रसिक थे । आगे उनकी कथा सुनिये –
श्री माधवदास जी बेसुध है, नाडी छूटनेवाली है (प्राण छूटने वाले है ), अब इनका अन्तिम समय आ गया है -ऐसा जानकर लोग उन्हें पालकी में बैठाकर आगरा से श्री वृन्दावन धाम को ले चले । जब आधी दूर आ गये, तब श्री माधबदास जी को होश हो आया । दुखित होकर आपने लोगों से पूछा कि क्रूरो ! तुम लोग मुझे कहाँ लिये जा रहे हो । लोगोने कहा- आप जिस श्री वृन्दावनधाम का नित्य ध्यान किया करते हैं, वही ले चल रहे हैं । यह सुनकर आपने कहा – अभी लौटाओ, यह शरीर श्री वृन्दावन जाने के योग्य कदापि नही है, इसे जब वहाँ जलाया जायगा, तब इसमे से बडी भारी दुर्गन्ध निकलेगी, वह प्रिया प्रियतम को अच्छी नहीं लगेगी । प्रिया-प्रियतम के पास जानेयोग्य जो होगा, वह अपने आप उनके पास चला जायगा । आप ऐसे भाव की राशि थे । वापस जाकर आगरा मे ही आपने शरीर छोडा ।