पूजय बाबा श्री गणेशदास जी की टीका और गीता प्रेस भक्तमाल से प्रस्तुत चरित्र :
जन्म और रचनाएं –
श्री खड्गसेन जी का जन्म इ. स. १६०३ एवं रचनाकाल सं १६२८ माना जाता है । ये ग्वालियर में निवास करते थे और भानगढ़ के राजा माधोसिंह के दीवान थे । श्री राधागोविन्द के गुणगनो को वर्णन करने मे श्री खड्गसेन जी की वाणी अति उज्वल थी । आपने व्रज गोपि और ग्वालो के माता -पिताओं के नामों का ठीक ठीक निर्णय किया । इसके अतिरिक्त ‘दानकेलिदीपक ‘आदि काव्यों का निर्माण किया, जिनसे यह मालूम होता है कि आपको साहित्य का प्रचुर ज्ञान था और आपकी बुद्धि प्रखर थी । श्री राधा गोपाल जी, उनकी सखियाँ और उनके सखाओं की लीलाओं को लिखने और गाने मे ही आपने अपना समय व्यतीत किया । कायस्थ वंश मे जन्म लेकर आपने उसका उद्धार किया । आपके हदयमें भक्ति दृढ थी, अत: सांसारिक विषयों की ओर कभी नही देखा।
राजा की भक्त भगवान में श्रद्धा प्रकट होना-
श्री खड्गसेन भानगढ़ के राजा माधोसिंह के दीवान थे । एक दिन इनके यहाँ वृंदावन के एक रसिक सन्त पधारे । उन्होंने इनको श्री हितधर्म (श्री हरिवंश महाप्रभु का सम्प्रदाय सिद्धांत ) का उपदेश दिया । रसिक सन्त से इष्ट और धाम का रहस्य सुनकर इन्होंने श्री राधावल्लभ लाल के चरणों मे अपने को अर्पित कर दिया और वृन्दावन आकर श्रीहिताचार्य महाप्रभु से दीक्षा ले ली । श्री श्रीजी की शरण ग्रहण करते ही गृहस्थी एवं जगत के प्रति इनका दृष्टिकोण एकदम बदल गया । श्रीश्यामा-श्याम का अनुपम रूप-माधुर्य इनके नेत्रों मे झलक उठा एवं दसों दिशाएँ आनंद से पूरित हो गई । ये अधिक से अधिक समय नाम और संतवाणी के गान मे लगाने लगे । इनका यश चारों ओर फैल गया और दूर-दूर से साधु संत आकर इनका सत्संग प्राप्त करने लगे । उनकी सेवा सुश्रुषा मे मुक्त हस्त से धन खर्च करने लगे ।
इनको अंधाधुंद खर्च करता देखकर दुष्ट और इनसे जलने वाले लोगों मे कानाफूसी होने लगी और कुछ दिन बाद उन लोगों ने राजाके कान भरना प्रारम्भ कर दिया । उनका कहना था कि दीवानजी को वेतन तो सीमित ही मिलता है, किंतु खर्च असीमित करते है । ऐसी स्थिति मे राजकोष के अतिरिक्त ये अन्यत्र कहाँ से धन पा सकते है ? हमे तो लगता है कि ये राजकोष का धन बर्बाद कर रहे है । राजा माधोसिंह के समझ मे यह बात आ गयी कि दीवान जी मेरा ही धन खर्च कर रहे है । उन्होंने तत्काल इनको बुलवाया और अत्यन्त कुपित होकर इनसे कहा – तूने राजकोष (खजाने) से चोरी की है । या तो तू एक लाख रुपया दण्ड मे दे अथवा मैं तुझे फाँसीपर लटकवा दूँगा ।
श्री खड्गसेन जी ने राजा को समझाने की बहुत चेष्टा की । इन्होंने कहा – हे राजन ! आप राज़कोष की जांच करा लीजिये और यदि कोई गडबडी निकले तो मुझे दण्ड दीजिये । अपराध के बिना दण्ड देना उचित नहीं है । किंतु राजाने इनकी एक नहीं सुनी और इन्हे कारागृह मे डाल दिया । इनका भोजन- पानी बन्द कर दिया गया । खड्गसेन जी को कारागृह (जेल) मे जाने से कोई पीड़ा नही हुई परंतु संत सेवा बंद हो जाने के कारण वे व्याकुल हो गए । रात को राजा जैसे ही सोया, भगवान नारायण के दूत यमदूतों का भयंकर रूप लेकर वहां आये और राजा को यमके दूतोने आकर घेर लिया और अनेक प्रकार से डराना आरम्भ कर दिया ।भयंकर रूप वाले यमदूतों ने उसके हाथ-पैरों मे हथकडी-बेडी डाल दी । राजा का शरीर कांपने लगा, वह घबड़ाकर रोने लगा । उसके मुंह से आवाज नही निकल रही थी ।
यमदूतों ने उससे कहा- तूने एक निरपराध हरिभक्त को कारागृह में डाल दिया है, तू उनको शीघ्र मुक्त कर दे, अन्यथा तेरी खैर नहीं है । प्रातःकाल होने पर भी राजा मृतकतुल्य पडा था ,कुछ बोलता न था । वैद्य, तांत्रिक आदि भी जब राजा के निकट आने का प्रयास करते तो उनके शरीर मे कंपन और दाह होने लगता। यह देखकर उसके उन नौकर-चाकरो को भी बहुत दुख हुआ, जिन्होने खड्गसेन जी की शिकायत की थी । राजा का एक सेवक बडा बुद्धिमान था। उसने कहा – भक्त श्री खड्गसेन जी को पीड़ा देने के कारण ही यह सब हो रहा है । इसका निवारण केवल खड्गसेन जी ही कर सकते है । शिकायत करने वाले सबको यह विश्वास हो गया कि खड्गसेन जी प्रति किये गये अपराध से ही राजा को यह महान् कष्ट मिल रहा है । अत: उनको ही राजाके पास ले चलना चाहिये । वे तीसरे दिन खड्गसेन जी को लेकर राजाके पास पहुँचे ।
श्री खड्गसेन जी का वैष्णव तेज और स्वरूप देखते ही यमदूतो ने उन्हें प्रणाम किया और राजाके पास से हट गये और राजा स्वस्थ हो गया । राजा ने यह सब अपनी आँखो से देखा ,अन्यत्र कोई भी यमदूतों को नही देख पाया था । खड्गसेन के इस प्रभाव को देखकर राजा लज्जित हो गया और उसने उठकर उनके चरण पकड़ लिये । इस घटना के बाद से राजा उनका बहुत आदर करने लगा । कोई राज्य-कार्य आनेपर वह स्वयं इनके घर चला जाता था, इनको अपने दरबार मे नहीं बुलाता था । वह इनका भगवान के समान आदर करने लगा । राजा खडगसेन जी के यहां नित्य सत्संग करने लगा, उसकी संत वैष्णवो में बहुत श्रद्धा बढ़ गयी । कुछ दिनों बाद उसने इनसे दीक्षा लेनेकी इच्छा प्रकट की । खडगसेन जी ने उसको श्री वृन्दावन ले जाकर दीक्षा दिलवा दी ।श्री खड्गसेन जी सत्संग से राजा के जीवन मे आमूल परिबर्तन हो गया । से खड्गसेन अपना शेष जीवन सत्संग मे ही व्यतीत किया । चौथी अवस्था (बुढापा)आनेपर इनकी श्री राधा वल्लभलाल की रसात्मिका सेवा में समय बिताने लगे । इनका महाप्रयाण आराध्य श्री राधवल्ल जी की भाव सेवा करते ही हुआ ।
शरीर त्यागकर महारास प्रवेश-
गौतमीतन्त्र मे वर्णित विधि से शरद पूर्णिमा की महारास का हृदय में ध्यान धारणकर आपने शरीरका परित्याग किया । ग्वालियर मे आप रासलीला के आयोजन यथासमय करते ही रहते थे । (एक बालक श्रीकृष्ण और एक बालिका श्रीराधा का रूप धारण करके रास लीला का अभिनय करते है) एक बार शरद पूर्णिमा की रात्रि में महारास हो रहा था । उस दिन उनके ऊपर प्रेम का बड़ा भारी गाढा रंग चढ गया । वह भावावेश बढता ही गया, आंखो मे रासविहारिणी विहारी जी की सुन्दर छवि निरन्तर समाती ही चली गयी । नृत्य और गान करती हुई प्रिया प्रियतम की सुन्दर जोडी को आपने अपलक नेत्रों से भली भाँति निहारा तो उसी समय मानसिक भावनासे नश्वर शरीर को त्यागकर युगलकिशोर की नित्यलीला में पहुँच गये । इस प्रकार श्री खड्गसेन जी ने अपार दिव्य सुख का अनुभवकर तथा लीला बिहारी की छविपर रीझकर अपने शरीर को न्यौछावर कर दिया । इस प्रकार प्रेम करना और शरीर त्यागना बहुत प्रिय लगा ।
ग्वालियर मे आप रासलीला के आयोजन यथासमय करते ही रहते थे । एक बार शरद पूर्णिमा की रात्रि में महारास हो रहा था । उस दिन उनके ऊपर प्रेम का बड़ा भारी गाढा रंग चढ गया । वह भावावेश बढता ही गया, आंखो मे रासविहारिणी विहारी जी की सुन्दर छवि निरन्तर समाती ही चली गयी । नृत्य और गान करती हुई प्रिया प्रियतम की सुन्दर जोडी को आपने अपलक नेत्रों से भली भाँति निहारा तो उसी समय मानसिक भावनासे नश्वर शरीर को त्यागकर युगलकिशोर की नित्यलीला में पहुँच गये । इस प्रकार श्री खड्गसेन जी ने अपार दिव्य सुख का अनुभवकर तथा लीलाविहारी की छविपर रीझकर अपने शरीर को न्यौछावर कर दिया । इस प्रकार प्रेम करना और शरीर त्यागना बहुत प्रिय लगा ।
Plz sand me more Katha
On Fri, Jan 18, 2019, 2:00 PM श्री भक्तमाल Bhaktamal katha श्री गणेशदास कृपाप्रसाद posted: “जन्म और रचनाएं – श्री खड्गसेन जी का जन्म
> इ. स. १६०३ एवं रचनाकाल सं १६२८ माना जाता है । ये ग्वालियर में निवास करते थे
> और भानगढ़ के राजा माधोसिंह के दीवान थे । श्री राधागोविन्द के गुणगनो को वर्णन
> करने मे श्री खड्गसेन जी की वाणी अति उज्वल थी । आपने व्रज गोपि”
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