१. श्री रूपा जी की संत निष्ठा –
श्री रूपरसिक देवाचार्य जी दक्षिण देश के रहनेवाले और जाति के ब्राह्मण थे । परिवार-पोषण के लिये आप खेती करते थे । सन्तसेवा मे आपकी बडी निष्ठा थी । बहुत कालतक आप के यहाँ सन्तसेवा सुचारु रूप से चलती रही । एक साल वर्षा के अभाव मे (वर्षा कम होने के कारण )खेती मे अन्न को उपज कुछ भी नही हुई । ऐसी स्थिति मे घर मे उपवास की स्थिति आ गयी । बाल-बच्चे भूखे मरने लगे । श्री रूपा जी अन्न की तलाश मे कही जा रहे थे । मार्ग मे सन्त जन मिल गये तो उन्हें अनुनय-विनयकर घर लिवा लाये । ये तो सन्तो के आने से बड़े प्रसन्न हो रहे थे, परंतु इनकी पत्नी घबड़ायी कि इतने सन्तो का सत्कार कैसे होगा ? घर मे तो कुछ अन्न धन ही नही है।
इन्होंने पत्नी से कहा कि- यदि कोई आभूषण हो तो दो, उसे बेचकर संतो की सेवा मे लगा दूँ । इन संतो के आशीर्वाद से ही दुखों की निवृत्ति होगीं । पत्नी के पास केवल एक नथ थी । उसने सोच रखा था कि कुछ दिन में यदि धन की व्यवस्था नही हो पायी तो यह नथ बेच कर अन्न खरीद लेंगे। परंतु वह नथ अब उसने लाकर पति को दे दी । श्री रूपाजी ने उसे ही बेचकर सन्तो की सेवा की । सन्तो के पीछे सबने सीथ-प्रसादी (संतो से विनती कर के मांगा हुआ उनका जूठा अथवा बचा हुआ प्रसाद) पायी । उसी रात को भगवान ने स्वप्न मे कहा कि घरमें अमुक जगह अपार सम्पत्ति गडी पडी है, उसे खोदकर आनन्द पूर्वक सन्त सेवा करो । श्रीरूपाजी ने वह स्थान खोदा तो सचमुच इन्हें बहुत सारा धन प्राप्त हुआ । फिर तो बड़े आनन्द से दिन बीतने लगे ।
२. श्री हरिव्यास देव जी द्वारा गोलोक से पधार कर रूपा जी को मंत्र दीक्षा प्रदान करना –
सन्तो के श्रीमुख से श्री हरिव्यास देवाचार्य जी (निम्बार्क सम्प्रदाय के महान संत) की महिमा सुनकर आपने निश्चय किया कि मैं इन्हीं से मन्त्र दीक्षा लूंगा । अपने निश्चय के अनुसार आप अपने गांव से श्रीमथुरा – वृन्दावन के लिये चल पड़े । परंतु संयोग की बात, जब आप मथुरा पहुंचे तो पता चला कि श्री हरिव्यासजी तो नित्य निकुंज मे प्रवेश कर गये (शरीर शांत हो चुका) । इस दु:खद समाचार से आपको बहुत अधिक पीडा हुई । आप मथुरा के विश्रामघाटपर प्राण त्याग का संकल्प कर जा बैठे । अन्त मे निष्ठा की विजय हुई । श्री हरिव्यास देवाचार्य जी ने नित्य धाम (भगवान के धाम) से प्रकट होकर इन्हें दर्शन दिया । मंत्र दीक्षा देकर श्री महावाणी (श्री हरिव्यास देवाचार्य जी द्वारा रचित ग्रंथ) जी के अनुशीलन का आदेश दिया । श्रीगुरुदेव की यह अलौकिक कृपा देखकर आप आनन्द विभोर हो गये । तत्पश्वात् श्रीगुरुके आदेशानुसार आप आजीवन श्री महावाणी जी के मनन चिन्तन में रत रहते हुए श्री श्यामा श्याम की आराधना करते रहे ।