बाबा श्री गणेशदास जी के शिष्य श्री राजेंद्रदासचार्य जी ने दास को जैसा सुनाया वैसा लिख रहा हूं :
नाभादास जी वर्णन करते है – संसार में भरतखंड रुपी सुमेरुपर्वत के शिखर से समान श्री टीलाजी एवं उनके विरक्त शिष्य श्री लाहा जी की परंपरा बहुत प्रसिद्ध हुई ।ब्रह्माण्ड में सबसे ऊँचा पर्वत सुमेरु पर्वत कहा जाता है । पर्वतो का राजा सुमेरु जम्बुद्वीप के मध्य में इलावृत देश में स्थित है ।यह पूरा पर्वत स्वर्णमयी है । इसके शिखर पर २१ स्वर्ग है जहां देवता विराजते है । सभी देवताओ के लोक और ब्रह्मा जी का लोक भी सुमेरु पर्वत पर स्थित है । जैसे सभी देशो में भारत और सभी पर्वतो में सुमेरु ऊँचा है उसी प्रकार श्री कृष्णदास पयहारी जी के शिष्य टीला जी के भजन की पद्धति सुमेरु के सामान है अर्थात सर्वोपरि पद्धति है । यह भजन की पद्धति कौनसी है ? वह है संतो और गौ माता की सेवा।
जन्म और बाल्यकाल :
श्रीटीला जी महाराज का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल १०, सं १५१५ वि.को राजस्थान के किशनगढ़ राज्यान्तर्गत सलेमाबाद मे हुआ था । कुछ संतो का मत है की जन्म खाटू खण्डेला के पास कालूड़ा गाँव में हुआ था । इनकेे पिता श्री हरिराम जी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ पण्डित और माता श्रीमती शीलादेवी साधु-सन्त सेवी सद्गृहिणी थी । पिता परम प्रतिष्ठित एवं प्रसिद्ध जोशी गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनके माता-पिता को बहुत समयतक कोई संतान नहीं थी, बादमे आबूराज निवासी एक सिद्ध संत के आशीर्वाद से इनका जन्म हुआ था । सन्तकृपा, तीर्थक्षेत्र का प्रभाव, पूर्वजन्म के संस्कारो और और माता – पिता की भक्ति के सम्मिलित प्रभाव से बालक टीलाजी मे बचपन से ही भक्ति के दिव्य संस्कार उत्पन्न हो गये थे, जो आयु और शस्त्रानुशीलन के साथ-साथ बढते ही रहे ।
श्री गायत्री महामंत्र जप के प्रभाव सेे टीला जी को श्री गायत्री और सरस्वती जी का साक्षात् दर्शन हुआ । ४ वेद ६ शास्त्र १८ पुराण उनके अंतःकरण में प्रकट हो गए । बचपन मे ही यह बालक किसी ऊँचे टीलेपर (ऊँची जगह अथवा रेत के पहाड़ के ऊपर )चढकर बैठ जाता और किसी सिद्ध सन्त की भाँति समाधिस्थ हो जाता, इस प्रवृत्ति को देखकर ही लोगो ने इनका नाम टीलाजी रख दिया ।
बालक टीला को भगवान के दर्शन :
एक बार की बात है, टीला जी के पिताजी ने उनको बालक ध्रुव की कथा सुनायी; फिर क्या था, बालक टीलाने भी तपस्या करके भगवान् के दर्शन करने का दृढ निश्चय का लिया । बालक टीला की भक्ति और दृढता देखका माता-पिता ने भी तपस्याकी अनुमति दे दी । टीला जी को तपके लिये उद्यत देखकर श्रीहनुमान जी ने मथुरा स्थित श्री ध्रुवटीला पर तपस्या करने का सुझाव दिया । उस सिद्ध स्थानपर बालक टीला तपस्या करने लगा । कई प्रकार की प्रतिकूलताएँ व प्रलोभन आये पर बालक ने तपस्या करना नहीं छोड़ा ।उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने दर्शन दिये और वरदान माँगने को कहा ।
टीला ने कहा – हे नाथ ! आपका दर्शन करके मैं धन्य हो गया परंतु अभी तक मेरा मनरूपी अश्व मेरे वश में नहीं हुआ है । मैंने बहुत साधनाएं की किन्तु मन अभी भी मुझे बहुत भटकाता है । तपस्या करने पर मन की इच्छाएं समाप्त होती है परंतु फिर भी मुझे ऐसा लगता है की जीवन में अभी भी कुछ पाना शेष रह गया है ।
भगवान ने कहा – टीला ! यह तो तबी संभव है जब तुम किसी भजनानंदि सद्गुरु कें चरणों का आश्रय ग्रहण करो ।तुम्हारे जीवन में उन्ही की कमी है जो तुम महसूस करते हो । टीला जी ने कहा -तो मुझे सद्गुरु की प्राप्ति हो ,ऐसा ही वरदान दीजिये । भगवान् ने कहा – एवमस्तु ! ऐसा ही होगा । सद्गुरु स्वयं तुम्हारे पास आकर कृपा करेंगे ।

श्री कृष्णदास पयहारी जी के दर्शन :
श्री टीला जी महान् गो भक्त थे, एक बार वे गोचारण करते हुए वन मे ही भजन कर रहे थे । इसी बीच एक तेजयुक्त महान सिद्ध सन्त पधारे और बोले कि मुझे दूध की भिक्षा कराओ । ये महात्मा और कोई नहीं अपितु गलता (जयपुर ) पीठ के महान् संत श्री कृष्णदास पयहारी जी ही थे। श्री पयहारी जी ने आजीवन गौ दुग्ध ही पाया , अन्न ग्रहण नहीं करते थे ।टीला जी ने श्री सन्त जी को भगवान के तुल्य मानकर साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और कहा -हे श्री संत महाराज ! आप कृपा करके थोडी देर इस स्थानपर ही विराजें, मैं अभी दूध लेकर आता हूँ । सन्त ने कहा – कही लेने मत जाओ, यह सामने जो गौमाता खड़ी है ,उसी गाय को दुहकर ले आओ । हमें इसी गौ माता का दूध पाने की इच्छा है । श्री टीला जी ने कहा भगवन् ! यह गाय देखने में बड़ी हष्ट -पुष्ट है परंतु यह गाय तो बांझ है ।आजतक इसने कोई बछड़ा बछिया दिया ही नहीं : यह गौ दूध ही नही देती । संत ने कहा – तुम गौ माता को प्रार्थना करके हमारे पास लाओ तो सही ।
संत ने टीला जी के हाथ में कमंडल दे दिया और गौ माता की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा – माताजी ! बड़ी भूख लगी है । कृपा करके दूध पिलाओ । तब श्री टीला जी ने देखा तो गौ माता के स्तन दुग्धयुक्त दिखायी पड़े । चारो थानो से दूर की धार सहज ही बहने लगी । टीला जी ने आश्चर्यचकित होकर दूध दुहकर सन्त जी को दिया । सन्त ने दुग्धपान किया और शेष थोडा सा प्रसाद टीला जी को भी उन्होने दिया । उसे पीते ही टीलाजी को सब सिद्धियां प्राप्त हो गयीं । श्रीटीलाजी तो विभोर हो गये और सन्त भगवान् अन्तर्धान हो गये । वस्तुत: इस रूप से श्री पयहारी जी ने ही टीला जी पर कृपा की थी परंतु उस समय टीला जी श्री कृष्णदास पयहारी जी से परिचित नहीं थे । इसके बाद टीला जी ध्रुवटीला ,मथुरा में आकर भजन में लग गए। कालान्तर में पयहारी जी ने सन्तो की प्रेरणा से स्वयं टीला जी के पास आकर इन्हे दीक्षा भी दी । वह प्रकरण इस प्रकार है :
श्री कृष्णदास पयहारी जी का टीला जी को शिष्य बनाना :
टीला जी की प्रसिद्धि धीरे धीरे बढ़ने लगी ।बहुत से साधू संत आकर इनके दर्शन करते । महात्मा लोग इनसे कहते की – टीला जी , आप गायत्री ,जप, भजन ,साधन , शास्त्र अध्ययन करके सिद्ध तो हो गए परंतु किसी समर्थ सद्गुरु के चरणों में शरणागति जब तक नहीं होगी तब तक भक्ति और ज्ञान परिपूर्ण कदापि नहीं हो सकता । टीला जी उन संतो से कहते की – हमको शिष्य बनाने लायाक गुरुजी मिले तभी तो हम शरणागति ग्रहण कर सकेंगे । कुछ महात्मा टीला जी से कहते – हम बनाएंगे तुम्हे अपना शिष्य और जैसे ही वह तुलसी का हीरा पहनाने और गोपीचंदन लगाने को हाथ बढाते , उसी क्षण टीला जी जिस टीले पर बैठकर भजन करते, वह आकाश की ओर ऊपर बढ़ने लगता । इस प्रकार से कोई संत उन्हें दीक्षा प्रदान ही नहीं कर सकते थे । गुरूजी रह जाते थे निचे और टीला चला जाता था ऊपर । इस दृष्य को देखने बहुत से महात्मा पधारते थे ।
एक दिन संतो की टोली विचरण करती हुई, गलता गादी (जयपुर ) पहुंची । वहाँ सिद्ध महात्मा श्री कृष्णदास पयहारी जी महाराज विराजते थे । संतो ने पयहारी जी से कहा – महाराज ! एक नया नया ब्रह्मचारी योगी है ,बहुत बड़ा तपस्वी है ,सारी सिद्धियां उसे प्राप्त है । ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ है , भजन तो बहुत करता है परंतु इस भारतवर्ष में कोई महात्मा ही नहीं है जो इसे अपना शिष्य बनाये । आप कृपा करके उसे अपना शिष्य बनाएं , साधुओं की बड़ी नाक कट रही है । साधुओं के वेष की लज्जा बचाने के लिए आप कृपा करके उसको शिष्य बनाएं । श्री कृष्णदास पयहारी जी बोले – जो साधुओं का ऐसा अपमान करता है उसे हम शिष्य कैसे बनाएं, हमें कोई शिष्य बनाने की लालसा थोडे है ।
तब संतो ने पयहारी जी से कहा – महाराज अपमान नहीं ,उस बालक का भी विचार ठीक है । शिष्य से अधिक गुरु का सामर्थ्यवान होना आवश्यक है , तभी तो शिष्य अपने को गुरु के चरणों में समर्पण करेगा और तभी तो शिष्य गुरु के चरणों में श्रद्धा रख पायेगा । वह बालक इतने सिद्ध कोटि का हो गया है ,तब वह किसके चरणों में अपना सर झुकाये ? एक आप ही ऐसे सामर्थ्यवान महापुरुष है जो उसे अपना शिष्य बना सकते है । उसे उचित मार्गदर्शन मिलने पर वह स्वयं का भी कल्याण करेगा और समाज का भी कल्याण करेगा । श्री कृष्णदास पयहारी ने संतो की प्रार्थना स्वीकार की और संतो सहित टीला जी के पास पधारे । संतो ने टीला जी से कहा की यह महात्मा आये है तुम्हे अपना शिष्य बनाने ।
टीला जी ने देखकर पहचान लिया की ये तो वही महापुरुष है जिनके हाथ फेरते ही हमारी बाँझ गाय दूध देने लगी थी और इन्ही संत की सीथ प्रसादी ( जूठन प्रसादी ) से हमें समस्त सिद्धियां प्राप्त हुई थी । टीला जी ने चरणों में प्रणाम् किया ।श्री कृष्णदास पयहारी जी में कहा – बेटा ! शिष्य बनोगे , श्रीराम मंत्र की दीक्षा और कंठी लोगे ? टीला जी बोला – हाँ ! हमें कोई शिष्य बनाने वाला सामर्थ्यवान गुरु मिले तो शिष्य अवश्य बनूँगा । श्री पयहारी जी बोले – अब हम आ गए है , सावधान हो जाओ ।जैसे ही पयहारी जी ने आचमन करके चन्दन हथेली पर घिसना प्रारम्भ किया , टीला बढ़ना शुरू हो गया । टीला जितना बढ़ता था , उससे ऊँचे हो जाते थे पयहारी जी महाराज। बहुत ऊंचाई पर जाकर पयहारी जी ने तिलक लगाया । फिर जब तुलसी की कंठी पहनाने गए तब कंठ बहुत चौड़ा होता गया ।
अंत में पयहारी जी ने कहा – ठहर जा ! ठहर जा ! ऐसा कहते ही सिद्धि ठहर गयी । टीला जी ने अपना पूरा समर्पण पयहारी जी के चरणों में कर दिया । श्री कृष्णदास पयहारी जी महाराज ने उन्हें उपासना का रहस्य समझाया और श्रीराम मन्त्र राज की दीक्षा देकर उनका नाम श्री साकेतनिवासाचार्य रख दिया । श्री सकेतनिवासाचार्य जी ने बहुत दिनोतक गलतागादी (जयपुर) मे रहते हुए श्री पयहारी जी महाराज की सेवा की, फिर उनकी आज्ञा लेकर भारत के सम्पूर्ण तीर्थो का परिभ्रमण एवं भगवद्भक्ति का प्रचार किया ।
राजस्थान के प्रयागपुरा नामक ग्राम के पास टीला जी की भजन स्थली है । कोसो दूर तक रेतीला क्षेत्र है और पानी की कमी है। कही कही बस खेजड़ी के पेड़ है । एक ऊँचे रेत के टीले पर एक अत्यंत विशाल पीलू का वृक्ष है । यही पर एक गुफा है जहां टीला जी (साकेत निवासाचार्य) आसान लगाकर भजन किया करते थे। उन्होंने अंतर्ध्यान होने से पहले कहा था – जब तक यह पीलू का वृक्ष हरा भरा रहेगा तब तक समझना की हम यही विराजमान होकर भजन कर रहे है । जब यह वृक्ष सुख जायेगा तब समझना की साकेतनिवासाचार्य (टीला ) जी साकेत( श्री राम का धाम) पधार गए । आज भी टीला जी और उनके गुरुदेव श्री पयहारी जी सह शरीर विराजमान है । अधिकारी पुरुषों को आज भी उनका दर्शन होता है ।
श्री टीला जी की गृहस्थ एवं विरक्त दोनों परम्पराएं प्राप्त होती है , दोनो में महान् सिद्ध सन्त हुए है । इनके पुत्र श्री परमानन्द दास जी का जन्म भी वहीं हुआ । उनके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम लाडाबाई था । उसके पतिदेव श्री खेमजी भी महान् भक्त थे । दोनों ही सिद्ध भक्त थे, दम्पतीने चक्रतीर्थ गाँव में रहकर भजन एवंं भक्ति-प्रचार किया । श्रीटीला जी की भक्ति के अतुल प्रभाव से उनके पुत्र श्री परमानन्द दास जी एवं उनके चार पुत्र १. श्री जोगी दास, २ श्री रिदास ३ श्री ध्यानदास ४ श्री केशवदास जी हुए । ये सब बड़े सन्तसेवी एवं भगवाप्रेमी हुए ।
मनोहरपुरा के राव लूणकरण जी ने श्री टीलाजी की भक्ति एवं सन्त-सेवा से प्रभावित होकर वि सं १६०२ में इन्हें ४०० बीघा भूमि भेट की । श्री टीला जी के पौत्र श्री केशवदास जी का जन्म यहीं खोरी मे हुआ था क्योंकि इनके पिता परमानन्द दास जी यहीं आ गये थे । खोरी गाँव जयपुर राज्य में शाहपुरा के पास है । यहीपर श्री परमानंद दास जी की छतरी है । भावुक भक्त वहाँ पहुंचकर दर्शन-प्रणाम करके अपने को कृतकृत्य मानते है । परमानन्द दास जी के पुत्रो में एक श्री जोगीदास जी भी बड़े सिद्ध महात्मा हुए, खेलणा ग्राम मे इन्होंने एक मन्दिर बनाया । इनके जीवन में कई चमत्कार हुए ,इनके चमत्कारो से प्रभावित होकर बादशाह ने हन्हें जागीर दी ।