पूज्य श्री दुर्गाप्रसाद चतुर्वेदी जी (मोटेगणेश वाले संत जी) श्री वृंदावन के महान सिद्ध संत हुए है । वे सदा श्री भरतलाल जी के भाव से भगवान की सेवा मे लगे रहते थे और जिस प्रकार भरत जी १४ वर्ष रहे उसी प्रकार से वे भी रहते थे । एक दिन श्री मानस जी का पाठ करते करते उन्होंने पढ़ा –
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ।। जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा ।।
अर्थात – यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में जीवों को पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं ।।
भाव मे भरकर वे मन से ही श्री अयोध्या पहुँच गए और श्री अयोध्या और सरयू जी को साष्टांग प्रणाम किया । सरयू जी मे गोता लगाया तो देखा कि चारो भाई जल में है और जैसे ही बाहर आये चारो उनपर जल उछालने लगे, श्री राम जी सहित तीनो भाइयो ने उन्हें हृदय से लगाया । श्री सीता जी ने आशीर्वाद दिया और जैसे ही नेत्र खोले तो स्वयं को आसान पर बैठे वृंदावन में अपने स्थान पर पाया । उनकी पत्नी कुछ देर में आयी और देखा कि उनका शरीर और वस्त्र जल से भीग रहे है , वस्त्रों और पैरों पर रज के कण लगे है । पत्नी के बहुत पूछने पर उन्होंने सारी बात बतायी और दोनों ने सरकार की कृपा का अनुभव करके भाव मे डूब गए ।
उन्होंने जीवन मे सभी को एक अमूल्य उपदेश दिया है – श्रीकृष्ण के बनकर, श्री कृष्ण के लिए , श्री कृष्ण का भजन करो ।
बाबा गणेशदास जी के शिष्य श्री राजेंद्रदासचार्य जी की वाणी से दास ने जैसा सुना वैसा लिखा है ।