संत श्री रघुनाथ दास गोस्वामी जी राधाकुंड गोवर्धन मे रहकर नित्य भजन करते थे । नित्य प्रभु को १००० दंडवत प्रणाम, २००० वैष्णवों को दंडवत प्रणाम और १ लाख हरिनाम करने का नियम था । भिक्षा मे केवल एक बार एक दोना छांछ (मठा) ब्रजवासियों के यहां से मांगकर पाते । एक दिन बाबा श्री राधा कृष्ण की मानसी सेवा कर रहे थे और उन्होंने ठाकुर जी से पूछा कि प्यारे आज क्या भोग लगाने की इच्छा है ? ठाकुर जी ने कहां बाबा ! आज खीर पाने की इच्छा है , बढ़िया खीर बना । बाबा ने बढ़िया दूध औटाकर मेवा डालकर रबड़ी जैसी खीर बनाई । ठाकुर जी खीर पाकर बड़े प्रसन्न हुए और कहा बाबा ! हमे तो लगता था कि तू केवल छांछ पीने वाला बाबा है , तू कहां खीर बनाना जानता होगा ? परंतु तुझे तो बहुत सुंदर खीर बनानी आती है । इतनी अच्छी खीर तो हमने आजतक नही पायी, बाबा ! तू थोड़ी खीर पीकर तो देख । बाबा बोले – हमको तो छांछ पीकर भजन करने की आदत है और आँत ऐसी हो गयी कि इतना गरिष्ट भोजन अब पचेगा नही , आप ही पीओ ।
ठाकुर जी बोले – बाबा ! अब हमारी इतनी भी बात नही मानेगा क्या? बातों बातों में ठाकुर जी ने खीर का कटोरा बाबा के मुख से लगा दिया । भगवान के प्रेमाग्रह के कारण और उनके अधरों से लगने के कारण वह खीर अत्यंत स्वादिष्ट लगी और बाबा थोड़ी अधिक खीर खा गए । मानसी सेवा समाप्त होने पर ठाकुर जी तो चले गए गौ चराने और बाबा पड गए ज्वर (बुखार) से बीमार। ब्रजवासियों मे हल्ला मच गया कि हमारा बाबा तो बीमार हो गया है । बात जब जातिपुरा (श्रीनाथ मंदिर) मे श्री विट्ठलनाथ गुसाई जी के पास पहुंची तो उन्होंने अपने वैद्य से कहाँ की जाकर श्री रघुनाथ दास जी का उपचार करो, वे हमारे ब्रज के महान रसिक संत है । वैद्य जी ने बाबा की नाड़ी देख कर बताया कि बाबा ने तो खीर खायी है ।
ब्रजवासी वैद्य से कहने लगे – २० वर्षो से तो नित्य हम बाबा को देखते आ रहे है, ये बाबा तो ब्रजवासियों के घरों से एक दोना छांछ पीकर भजन करता है । बाबा कही आता जाता तो है नही , खीर खाने काहाँ चला गया? ब्रजवासी वैद्य से लड़ने लगे और कहने लगे कि तुम कैसे वैद्य हो – तुम्हें तो कुछ नही आता है ।
वैद्य जी बोले – मै अभी एक औषधि देता हूं जिससे वमन हो जाएगा (उल्टी होगी) और पेट मे जो भी है वह बाहर आएगा । यदि खीर नही निकली तो मैं अपने आयुर्वेद के सारे ग्रंथ यमुना जी मे प्रवाहित करके उपचार करना छोड़ दूंगा । ब्रजवासी बोले – ठीक है औषधि का प्रयोग करो । बाबा ने जैसे ही औषधि खायी वैसे वमन हो गया और खीर बाहर निकली । ब्रजवासी पूछने लगे – बाबा ! तूने खीर कब खायी? बाबा तू तो छांछ के अतिरिक्त कुछ पाता नही है , खीर कहां से पायी?
रघुनाथ दास जी कुछ बोले नही क्योंकि वे अपनी उपासना को प्रकट नही करना चाहते थे अतः उन्होंने इस रहस्य को गुप्त रहने दिया और मौन रहे । आस पास के जो ब्रजवासी वहां आए थे वो घर चले गए परंतु उनमे बाबा के प्रति विश्वास कम हो गया, सब तरफ बात फैलने लगी कि बाबा तो छुपकर खीर खाता होगा । श्रीनाथ जी ने श्री विट्ठलनाथ गुसाई जी को सारी बात बतायी और कहां की आप जाकर ब्रजवासियों के मन की शंका को दूर करो – कहीं ब्रजवासियों द्वारा संत अपराध ना हो जाए । श्री विट्ठलनाथ गुसाई जी ने ब्रजवासियों से कहां की श्री रघुनाथ दास जी परमसिद्ध संत है । वे तो दीनता की मूर्ति है, बाबा अपने भजन को गुप्त रखना चाहते है अतः वे कुछ बोलेंगे नही । उन्होंने जो खीर खायी वो इस बाह्य जगत में नही , वह तो मानसी सेवा के भावराज्य में ठाकुर जी ने स्वयं उन्हें खिलायी है ।